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________________ कपटी होते पर के दास २७७ माया के रहते आत्म-शुद्धि नहीं शास्त्र में साधकों को आत्मशुद्धि के लिए आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित आदि साधनाएँ बताई हैं, किन्तु उन सबके साथ एक कड़ी शर्त रखी गई है कि आलोचना आदि की साधनाएँ तभी सफल होंगी और साधक की आत्मशुद्धि भी तभी होगी, जब वह माया की वैतरणी नदी को पार कर जाएगा। अगर मन में या वचन में जरा भी माया रखकर आलोचना आदि करेगा, तो वह यथार्थ आलोचना आदि नहीं होगी, यथार्थ आलोचना आदि के न होने की स्थिति में आत्मशुद्धि नहीं हो सकेगी। पाप उसके अन्तर में तीखे कांटों की तरह खटकते और चुभते रहेंगे, उसके अन्तर में पापों का बोझ बना रहेगा, वह हलका नहीं होगा। इस कारण उसके जीवन में समाधि भाव-शान्ति भाव नहीं आ सकेगा। सूत्र कृतांग सूत्र (श्रुः २, अ. २, ३-१३) में स्पष्ट बताया है-- ___ "मायो मायं कटु णो आलोएइ, णो पडिक्कमेइ, णो निदइ, णो अहारिह तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ ।" मायी साधक अकार्य करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, आत्मनिन्दा, गर्हणा आदि नहीं करता और न यथोचित तपःकर्मरूप प्रायश्चित ग्रहण करता है, (वह कृत पापों को ढकना चाहता है), उसे अपयश का भय बना रहता है। इस कारण उसकी आत्मशुद्धि नहीं हो पाती । वास्तव में, अपनी माया या अपने जीवन के किसी भी अंग-प्रत्यंग में प्रचलित माया को तो मनुष्य स्वयमेव पहचान लेता है। उसके लिए किसी दूसरे को वकील बनाने की जरूरत नहीं होती। माया तेरे कितने रूप? ____ माया यहाँ न तो धन-सम्पत्ति के अर्थ में है और न ही वह ब्रह्म की माया के अर्थ में है। यहाँ मुख्य रूप से माया कपट अर्थ में है । जहाँ-जहाँ कपट, छल, झूठफरेब, दम्भ आदि हो, वहाँ-वहाँ माया का वास है । इस प्रकार हम देखते हैं कि माया अनेक रूपों में मानव जीवन में खेलती रहती है। कभी वह कपट के रूप में आती है तो कभी कूट नीति और मायाचार के रूप में आती है, कहीं वह प्रतारणा, धोखेबाजी और वंचना के रूप में आती है, तो कहीं छल, झूठ-फरेब, धोखा-धड़ी, और बेईमानी के रूप में अपनी झांकी दिखाती है। कभी वह दुराव और छिपाव के रूप में जीवन में प्रविष्ट होती है तो कभी कुटिलता और जटिलता के रूप में। कभी वह दम्भ और पाखण्ड के रूप में अवतरित होती है तो कभी वह ढोंग और बहानेबाजी के रूप में । मतलब यह कि माया का एक ही रूप नहीं है. वह विविध रूपों में जीवन की नाट्यशाला में नाटक के रंगमंच पर आती है। माया : कपट के रूप में : ___कपट माया का दाहिना हाथ है। वह जीवन में जब आता है तो कलुषित कर देता है। कभी-कभी यह कपट दूसरों को बदनाम करने के लिए एक षड्यंत्र के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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