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________________ अभिमानी पछताते रहते २६६ भविष्य में कभी अभिमान मत करना।" परन्तु राजा की यह शिक्षा उज्जितकुमार के गले नहीं उतरी । उसकी उद्दण्डता और अहंकारचर्या देखकर राजा ने उसे विषवृक्ष समझ कर निकाल दिया । वह भटकता-भटकता एक तापस के आश्रम में पहुँचा। पर तापस को भी मस्तक नहीं झुकाया, इस कारण अविनीत समझ कर उसे वहाँ से विदा किया। वह जिस मार्ग से जा रहा था. रास्ते में सामने से एक सिंह आता दिखाई दिया। पर अहंकार से भरा उज्झितकुमार सिंह के सामने अड़ गया, एक ओर हटा नहीं। सिंह ने एक ही झटके से उसका काम तमाम कर डाला। मर कर वह गधा बना । गधे के भाग्य में तो मालिक की ताड़ना-तर्जना और बोझ ढोना आदि ही होते हैं, अतः उन्हें सहते. सहते जिंदगी पूरी की। वहाँ से मर कर नन्दिपुर में पुरोहित का पुत्र बना। समस्त विद्याओं में पारंगत होते हुए भी अहंकार के संस्कार अभी तक गए नहीं थे। अतः अहंकारवश मर कर डूम बना । उस डूम को जब भी पूर्वजन्म के पुरोहित का परिवार देखता, उसे उसके प्रति अत्यन्त अनुराग पैदा होता। एक बार नगर में केवली भगवान पधारे । पुरोहित का समस्त परिवार उन्हें वन्दन करने गया। केवली भगवान् ने उपदेश दिया-अहंकार त्याग के विषय में । धर्मोपदेश के बाद केवली भगवान से पुरोहित ने सविनय पूछा-"भगवन् ! हम उत्तम जाति-कुल के कहलाते हैं, फिर भी हमें इस डूम पर इतना अनुराग क्यों उमड़ता है ? केवली भगवान् ने अन्त से इति तक डूम के पूर्वजन्मों का वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर जगत् की वास्तविकता समझी और राजा आदि अनेक भव्य प्राणियों ने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की। क्रमशः साधना करके मोक्ष पहुँचे। इधर वह डूम बहुत ही चिन्ता करने लगा। जब उसने अपने पूर्वजन्म की बातें सुनी तो अहंकार के कारण हुए इस घोर अनर्थ को जानकर वह बहुत चिन्तित-दुःखित रहने लगा। कथाकार कहते हैं- "आखिर अहंकार त्याग करके समत्व पर चलकर वह क्रमशः मोक्ष जाएगा। इसीलिए गौतमकुलक में कहा गया 'माणंसिणो सोयपरा हवंति ।' वास्तव में अभिमानी जीवन अन्त में दुःखित, चिन्तित एवं पश्चात्ताप युक्त होता है। ऐसा समझ कर आप अपने जीवन में अहंकार का त्याग करें और जीवन को नम्र, सरल, सरस, मधुर एवं गुणग्राही बनाएँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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