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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ आप आदिमकाल के बंदरों तक जा पहुँचेगें। आप आज क्या हैं, इतना ही बता सकें तो पर्याप्त होगा।" साहित्यकार उनकी बात सुनकर चुप हो गया। क्या इस प्रकार पूर्वजों के पदचिह्नों पर चले बिना ही उनके गुणगान मात्र से उनका कुछ कल्याण हो सकता है ? ऐसे लोग जो बड़े-बड़े आचार्यों, सन्तों और तपस्वियों की सेवा करने, उनका सत्संग करने आदि बातें जोरशोर से कहकर अपना बड़प्पन या अपनी ज्ञानगरिमा सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु जब तक उनमें स्वयं में वे गुण नहीं आ जाते, तब तक केवल पूर्वजों या अपने पूज्यों की गुणगाथाएँ गाकर अपने को उत्कृष्ट या धार्मिक बताना, उस ग्वाले के समान है, जिसकी अपनी गाय एक भी नहीं है, केवल दूसरों की गायें दुहा करता है। सचमुच ऐसा मिथ्याभिमानी जीवन दयनीय है, ऐसे लोग स्वयं गुण से खाली हैं, केवल दूसरे के गुण के बल पर इतराते हैं। दूसरे की तिजोरी में रखे धन की प्रशंसा करने से क्या वह धन प्रशंसक का बन जाएगा? कदापि नहीं। अपने पुरुषार्थ के बल पर निरभिमान होकर गुणों को प्राप्त करना और उन गुणों से चुपचाप अपना आत्मकल्याण करना ही श्रेयस्कर है । ऐसे मिथ्याभिमान से आदमी फूल सकता है, पर जन-जन के हृदय में फैल नहीं सकता । अहंकार के कारण तिरस्कार और अधोगति अहंकारी को सबसे बड़ी चिन्ता उस समय होती है, जब वह पहले तो अज्ञानवश दूसरे की निन्दा, तिरस्कार और अनादर करता रहता है, परन्तु उस मदरूप दुष्कर्म के कारण अन्त में जब उसे नीचगति और अधमयोनि में जन्म मिलता है। नन्दीपुर के राजा रत्नसार की धर्मपत्नी रानी रम्भा के सन्तान तो अनेक हुई, पर कोई जीवित नहीं रहती थी। इससे राजारानी चिन्तातुर रहते थे। एक बार उनके एक पुत्र हुआ। किसी बुद्धिमान के कहने से पुत्र को जीवित रखने के लिए उन्होंने एक टोटका किया - पुत्र को एक सूप में रख कर पहले उकरड़ी पर डाल दिया। एक घड़ी के बाद उसे ले आए। दैवयोग से वह जीवित रहा । कई बार उसे उकरडी पर डालने और वापस लाने के कारण उसका नाम राजा ने 'उज्झितकुमार' रखा । जवान हो जाने पर भी वह जन्म से ही अहंकारी होने के कारण किसी को नमन नहीं करता था, लूंठ की तरह खड़ा रहता था। अहंकार वश सारेजगत को तिनके की तरह अपने से तुच्छ मानता था। जब उसे उपाध्याय के पास पढ़ने भेजा गया तो उपाध्याय को भी वन्दन नहीं किया। एक दिन उपाध्याय को भी थप्पड़ मारकर नीचे गिरा दिया। राजा ने उज्झितकुमार के इस उद्दण्ड व्यवहार के विषय में सुना तो उसे बहुत डांटा फटकारा और कहा-अभिमानरूपी हाथी का मर्दन कर, क्योंकि दर्प विनयशरीर का नाश करने वाला सर्प है। तुमने सुना होगा कि जिसके समान संसार में कोई भी शक्तिशाली नहीं था, वह रावण भी अभिमान के कारण नष्ट हुआ था। इसलिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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