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आनन्द प्रवचन : भाग ८
को स्मरण करके अपने लघुभ्राता लक्ष्मण से कहा- 'भाई ! रावण का अब अन्त समय निकट है । तुम उनसे जाकर राजनीति की कुछ शिक्षाएँ ग्रहण कर लो ।'
लक्ष्मण ने भाई के परामर्श पर रावण के पास जाकर विनयपूर्वक कुछ शिक्षाएँ ग्रहण कीं ।'
कवि ने अभिमानी को सावधान करते हुए कहा है
अकड़ता क्यों रे अभिमानी !
इस दुनिया में बड़ों-बड़ों का उतर गया पानी || अकड़ता ॥ ध्रुव ॥
जब अपना मन जीत न पाया, ऊँचा आसन वृथा बनाया । हिलमिल कर रह सका न जग में हुई परेशानी ॥ अकड़ता ॥ १ ॥ अपनी ही तारीफ न कर तू, बेशर्मी का राग न भर तू । अपने मुँह से अपनी महिमा, जग ने कब जानी ॥ अकड़ता ॥२॥ एक घड़ी की है, सब छाया, जग की सब क्षणभंगुर माया । सबको मिट्टी में मिलना है भूल न अज्ञानी ॥ अकड़ता ||३|| कवि ने जीवन का सत्य स्पष्ट रूप से उद्घाटित कर दिया है ।
परन्तु अभिमानी की वृत्ति तो ऐसी होती है कि स्वयं न जानने पर भी दूसरों से सीखना नहीं चाहता, कदाचित् बरबस सीखना भी पड़े तो वह सिखाने वाले के प्रति विनय और कृतज्ञता प्रगट नहीं करता । उसका अहंकार उसे ऐसा करने से रोकता है ।
एक परिवार में नई बहू आई हुई थी । उसकी माँ तो अपनी बहुत छोटी उम्र में ही चल बसी थी । घर के किसी ने उस पर ध्यान न दिया । फलतः वह रसोई बनाना आदि गृहकार्य भलीभाँति सीख न सकी । यहाँ ससुराल में पति-पत्नी के सिवाय और कोई था नहीं, जो उसे कुछ सिखा सके। वह भी अभिमानिनी थी, किसी से कुछ सीखने की वृत्ति ही कम थी । परन्तु घर का काम तो उसे करना ही पड़ता था । उसके पति ने उससे कहा कि पड़ौस में जो बुढ़िया माँजी रहती हैं, उनसे तुम पूछ कर सीख लिया करो ।' उसने बुढ़िया माँजी से कहा - ' माताजी ! आप बड़ी हैं, मेरी माता- समान हैं। अपनी बहू को पूछने पर बता दिया करना ।' बुढ़िया ने हाँ भरली । अब जब भी उस बहू को चावल, दाल आदि बनाने के सम्बन्ध में जानना होता तो बुढ़िया के पास जाती और पूछा करती । किन्तु जब बुढ़िया सब कुछ प्रेम से बता देती, तब कृतज्ञता प्रगट करने के बदले अहंकारवश कहती - 'यह तो मैं भी जानती हूँ ।' यों हर बार बुढ़िया जब उसके पूछने पर बता देती तो उसके मुंह से यह अहंकार भरा वाक्य निकलता । इससे बुढिया को भी अच्छा न लगा कि इसे आता-जाता है नहीं, फिर भी शेखी बघारती है कि मैं भी जानती हूँ । कृतज्ञता और विनय तो इसमें है ही नहीं । अतः इसे एक दिन कुछ चमत्कार बताना चाहिए ।
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