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अभिमानी पछताते रहते • २५६ .. अभिमानी शोक-परायण व चिन्तातुर क्यों रहता है ? प्रश्न होता है, अभिमानी को सतत शोक या चिन्ता से ग्रस्त क्यों रहना पड़ता है ? जैसा कि गौतम ऋषि ने कहा-'माणंसिणो सोयपरा हवंति' इसके अनुसार अभिमानी का स्वभाव ही ऐसा बन जाता है कि उसे कोई दूसरा अपने से बढ़कर नहीं झुंचता। वह अपने अभिमान की भूख को मिटाने के लिए अहर्निश चिन्तित, व्यथित और परेशान रहता है। आज अमुक व्यक्ति आगे बढ़ गया है तो कल कोई
और उससे भी आगे बढ़ जाता है तो अभिमानी की छाती पर सांप लौटने लगता है । उसे दूसरों से आगे बढ़कर बाजी मारने की सूझती है। उसका अहंकार उसे चैनसे बैठा नहीं रहने देता । शुभचन्द्राचार्य ने ठीक ही कहा है
'लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनम् ।' अभिमान से मनुष्य का विवेकनेत्र नष्ट हो जाता है।
धारा नगरी में राजा भोज की कीर्तिपताका दान-सम्मान के कारण चारों ओर फैल रही थी । उनका एक समवयस्क मित्र था, सेठ सोमदत्त ! वह पर्याप्त धन होते हुए भी पक्का कंजूस था। राजा भोज की मनःस्थिति उसके दान, ज्ञान और सम्मान से वसन्त की-सी प्रफुल्लित थी, पर सेठ की मन:स्थिति थी पतझड़-सी थी, जिसमें न पत्ते, न फूल, केवल ढूंठ ही ढूंठ थे, क्योंकि वृद्धावस्था में सेठ की पत्नी गुजर गई थी, एक लड़का था, वह वेश्यागामी हो गया। पुत्री-जामाता सेठ का धन पाने के लिए उसकी मृत्यु-कामना कर रहे थे। इस कारण सेठ उदासी और बेचैनी का जीवन जी रहा था। एक दिन सकलकीर्ति मुनि से जब सेठ ने अपनी मनोव्यथा तथा अपने मित्र राजा भोज के सुख और सन्तोष की बात कही तो उन्होने कहा-"अगर तू सच्चा सुख और सन्तोष चाहता है तो धन का मोह छोड़ ! क्या तेरा संग्रहीत धन तेरे साथ परलोक जाएगा ?"
सेठ-नहीं, गुरुदेव !'
मुनि बोले-"तो फिर पुत्रादि को जो देय है, उस अंश धन को देकर शेष धन परोपकार में लगा। जब तू यह कर चुके, फिर तुझे शाश्वत शान्ति की राह बताऊँगा।"
सेठ की बन्द तिजोरियाँ और भण्डार खुल गए। सेठ के नाम के विद्यालय, अनाथालय, चिकित्सालय खुल गए। कवियों और पण्डितों की झोलियाँ भी खब भरी । फलतः उन्होंने सेठ के गुणगान गाए और महादानी घोषित किया। साल भर में राजा भोज ने जितना दान दिया था, उतना सेठ ने एक हफ्ते में दे दिया । अतः सेठ अपने को राजा से ऊँचा समझ बैठा। प्रशंसकों और भाटों ने उसे दानवीर कर्ण का अवतार बताकर उसकी खूब प्रशंसा की। इन सबका असर यह हुआ कि सेठ गर्व से फूल गया। उसकी चालढाल और बोलचाल में दर्प और अभिमान टपकता था।
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