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________________ २५८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ "इस जिले में आप गाँव पर अंगुलि रखिए !” उन्होंने एक बिन्दु जिस पर बारीक अक्षरों में लिखा था- - ' धर्मपुरा ।' उस सज्जन ने कहा - "इतने विशाल विश्व में आपका गाँव तो बहुत छोटे-से बिन्दु भर है न ?” उस व्यक्ति का सारा गर्व उतर गया । उस दिन से वह कभी अपने गाँव प्रान्त की डींग नहीं हांकता ।' अहंकारी को अपने नाम से बड़ा मोह होता है अहंकारी के जीवन का एक पहलू यह भी है कि उसको नाम कामना, बड़ाई, प्रसिद्धि और कीर्ति से बड़ा मोह होता है, वह दान भी देता है तो नाम के लिए, व्रतनियम आदि धर्माचरण करता है तो भी प्रसिद्धि के लिए तीर्थयात्रा आदि करता है तभी यश कीर्ति के लिए उसके जप-तप आदि भी किसी न किसी ऐसी ही आकांक्षा से प्रेरित होते हैं । परन्तु वह यह नहीं समझता कि दुनिया में किसका नाम रहा है ? ये सब तो नश्वर वस्तुएँ हैं । ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में ये क्या हैं ? सुन लीजिए" अभिमानं सुरापानं, गौरवं घोर - रौरवम् । प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥" अभिमान मद्यपान सदृश है, गौरव साक्षात् रौरव नरक है, प्रतिष्ठा सुअर की विष्ठा के समान तुच्छ है; अतः इन तीनों को त्याग कर सुखी बनना चाहिए । फिर भी नाम कामना बहुत सी बार मनुष्य को सताती है । भरत - चक्रवर्ती षट्खण्ड साधकर जब ऋषभ कूट पर्वत पर गए तो उन्हें अभिमान हुआ कि मैं एक ही ऐसा प्रथम चक्रवर्ती हूँ, जिसका नाम पर्वत पर सबसे शिरोमणि होगा । किन्तु पर्वत पर पहुँचते ही उन्होंने देखा कि यहाँ तो नाम लिखने तक को स्थान नहीं है । न जाने हजारों लाखों चक्तवर्तियों ने पूर्वकाल में यहाँ नाम अंकित कर रखे हैं । उनका सारा गर्व चूर हो गया । लाचार होकर भरत ने किसी एक का नाम मिटा कर अपना नाम ज्यों ही टंकित किया त्यों ही उनके हृदयाकाश में विवेक बुद्धि की विद्युत् चमक उठी । उनके अन्तर से आवाज आई - "भरत ! आज तूने किसी का नाम मिटाया है, कल कोई तेरा भी नाम मिटाने वाला पैदा होगा । अतः अहंत्वभाव की यह मोहमादकता बुरी बला है । इस विश्व के विराट् पट पर किसका नाम अमिट एवं अमर रहा है ?" कबीर ने भी साफ-साफ चेतावनी देते हुए कहा है afar गर्व न कीजिए काल गहे कर केस । ना जाने कित मारिहै, क्या घर क्या परदेश ? कबिरा गर्व न कीजिए अस जोबन की आस । टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ।। कबीर ने कितनी सच्ची चेतावनी दे दी है, अहंकारियों को ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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