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________________ २५४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ मिथ्या अहं की पूर्ति में जितनी शक्ति लगाता है, उतनी शक्ति यदि अहं की आराधना में लगा दे तो कितना अच्छा हो ! पर अहं के पुजारी अहँ के पुजारी नहीं हो सकते । एक व्यक्ति अरिहन्त भगवान के नाम का जप तथा उनके कल्याणक का तप बहुत किया करता था, परन्तु उसके मन में दुनियादारी तथा जप-तप से होने वाले लाभ के स्वार्थ की एवं अपने आपको जपी-तपी कहलाने की महत्वाकांक्षा भी लगी थी। एक दिन एक मुसलमान भक्त से उसकी मुलाकात हुई। उसने परमात्मा की भक्ति के सिलसिले में बात करते हुये कहा जब मैं सच्चे हृदय से किसी लाभ की आशा या स्वार्थ से प्रेरित न होकर खुदा की बन्दगी करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है, साक्षात खुदा मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गया है। उस समय मुझे सुखशान्ति का अनुभव होता पर जब मन में अहंभाव का प्रवेश होता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि खुदा शरीर से बाहर चला गया है । शरीर से खुदा के पृथक् होने पर मन को अपार कष्ट होता है। फिर मैं उसे बुलाना चाहता हूँ तो बस एक ही आवाज सुनाई पड़ती है-हम दोनों साथ नहीं रह सकते । हम दोनों (खुदी या खुदा) में से एक को अवश्य ही बाहर निकलना पड़ेगा। इसलिए दोनों का एक स्थान पर एकत्र होना असम्भव है।" खुदी या खुदा कहो चाहे अहं या अर्ह, एक ही बात है। ___ क्या आप भी अपने मनमन्दिर में अहं को विराजमान करना चाहते हैं ? यदि चाहते हैं तो आपको अहं को छोड़ना पड़ेगा । परन्तु अहं के पुजारी में एक विशेषता होती है कि बह अहं को कदापि छोड़ना नहीं चाहता, अहं चाहे घर में आए या न आए ! वह अहँ का पुजारी बनने का ढोंग रच लेगा, धन के बल पर आडम्बर कर लेगा, अहं के पुजारी कहलाने का । पर सच्चे मन से अहँ का पुजारी नहीं बनेगा। अगर ऐसा होता तो समाज में कभी ये विषमताएं न होतीं। अपने अहं की पूजा के लिए फिजूलखर्ची और प्रदर्शन करके समाज के गरीव एवं मध्यमवर्गीय लोगों को नीचा दिखाने या अपने पीछे बरबस घसीटे जाने के लिए बाध्य करने की नौबत न आती ! यह आडम्बर पूजा अहं पूजा ही तो है। अपने अहं की सुरक्षा के लिए हजारों रुपयों का धुंआ हाँ तो, अभिमानियों की मनोवृत्ति होती है, अपने अहं की सुरक्षा के लिए अपनी बात, चाहे वह गलत ही हो, रखने के लिए, अपनी मान्यता, अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए चाहे जितना पैसे का धुंआ हो जाए चाहे मुकद्दमेबाजी में तबाह हो जाए, चाहे कुछ भी श्याह-सफेद करना पड़े, करना ही होगा। महाराष्ट्र में एक धनिक व्यापारी के दो लड़के थे। पिताजी ने अन्तिम समय में अपनी जमीन-जायदाद का बँटवारा दोनों में कर दिया था। इसके एक दो वर्ष के बाद ही एक दिन बड़ा भाई अपने खेत पर पहुँचा तो छोटे भाई के खेत पर काम करने वालों को सुपारी के पेड़ से सुपारी तोड़ते देखा। उसने उनसे कहा-“यहाँ सुपारी का पेड़ तो मेरे खेत की सीमा में है, तुम इसकी सुपारियाँ क्यों तोड़ रहे हो?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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