SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की परख जीवन एक दृष्टि बिन्दु भिन्न-भिन्न मनुष्य का जीवन सबसे उत्कृष्ट जीवन है, परमात्मा के निकट पहुँचाने वाला, तथा आत्मा को अत्यन्त विशुद्ध बनाकर स्वयं सिद्ध, बुद्ध मुक्त बन जाने वाला जीवन है । भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट 'एगे आया' के दृष्टिकोण से सारे संसार का जीवन एक समान आत्मा को लेकर चल रहा है । परन्तु देखने का, समझने का, एवं परखने का दृष्टिबिन्दु भिन्न-भिन्न होने से व्यक्ति जीवन को ठीक तरह से समझ नहीं पाता । मैं आपको इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझाता हूँ ---- एक धनिक ने शहर से बाहर एक मकान इस विचार से बनवाया कि बाहर खुली व शुद्ध हवा मिलेगी, सबका स्वास्थ्य ठीक रहेगा । एक दिन उस मकान के पास से एक चोर गुजरा। उसने सोचा कि चोरी करने जाते समय यह मकान मेरे लिए अच्छा आश्रम बनेगा । साथ ही इसमें चोरी करने में भी आसानी रहेगी, क्योंकि यह गाँव के बाहर एकान्त में बना हुआ है । यह थी चोर की भावना । दूसरे दिन वहाँ से एक जुआरी निकला । उसने सोचा - " जुआ खेलने के लिए यह बिलकुल एकान्त स्थान है। पुलिस आदि को यहाँ आने का अवसर नहीं मिलेगा तीसरे दिन एक परस्त्रीगामी लम्पट वहाँ से होकर जा रहा था । उसने इस मकान को देखकर सोचा - " आनन्द भोग करने के लिए यह बहुत ही उपयुक्त स्थान है ।" इसके पश्चात् एक दिन एक भगवान् का भक्त वहाँ से गुजरा। उसने मकान को देखा तो क्षणभर ठहर कर विचार करने लगा - " ध्यान में बैठने और भगवद्भजन करने के लिए यह अच्छा एकान्त शान्त स्थान है । यहाँ बैठकर ध्यान, भजन करने में मन भी खूब लगेगा। किसी प्रकार का कोलाहल न होने के कारण चित्त की एकाग्रता व तन्मयता कोई बाधा नहीं पड़ेगी ।" ११ मकान एक है, परन्तु दृष्टि और भावना भिन्न-भिन्न प्रकार की है । इसलिए विभिन्न भावना वाले अपने-अपने दृष्टिबिन्दु और विचार से मकान को देखते हैं । आँखों में फर्क नहीं है, आँखें तो उस मकान की रचना को, जैसा वह बना है, उसी रूप में ही देखती हैं । मकान की आकृति, बाह्य ढाँचा, लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, रंगाई-पोताई सब को एक सरीखी ही दिखाई देती है, परन्तु फर्क है— उस मकान के उपयोग एवं मकान के यथार्थ उद्देश्य को देखने और सोचने के दृष्टिकोण में । प्रकार मनुष्य का जीवन शरीर के बाह्य ढाँचे, अंगोपांगों की रचना, यथास्थान अवयवों की व्यवस्था, विभिन्न इन्द्रियों से कार्य करने की क्षमता आदि स्थूल दृष्टि से प्रायः एक-सी दिखाई देती है, परन्तु मानव जीवन का जो आन्तरिक रूप है, उसका जो उद्देश्य है या जो उपयोग सम्भव है, उसे देखने-परखने और सोचने के दृष्टिकोण में फर्क है । और यही फर्क मनुष्य जीवन का सही मूल्यांकन करने में रुकावट डा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy