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________________ १० आनन्द प्रवचन : भाग ८ गई। भला ये भी नहीं सीखे ! अच्छा क्या तु गणित जानता है ?" मल्लाह ने कहा- "गणित-वणित भी मुझे नहीं आता, मैं तो नाव चलाना जानता हूँ।" प्रोफेसर तन कर बोले-“वाह ! गणित भी नहीं सीखा ? तब तो तेरी आधी जिंदगी बेकार गई । भला यह भी कोई जीवन है ? अच्छा यह बता तू ज्योतिष जानता है ?" मल्लाह ने कहा- "साहब ! मैं तो नौका खेने के सिवाय और कोई विद्या नहीं सीखा।" प्रोफेसर सहाब शेखी बघारते हुए बोले-"बेवकूफ कहीं का, कुछ भी नहीं सीखा, तब तो तेरी पौन जिन्दगी ही निकम्मी गई।" यह बातचीत हो रही थी, इतने में तो नदी में जोर का तूफान आया । नौका डगमगाने लगी और डूबने को हो गई । मल्लाह ने बहुत कोशिश की नौका को बचाने की, पर सब व्यर्थ ! जो यात्री तैरना जानते थे, वे कूद पड़े और नदी पार कर गए । मल्लाह ने प्रोफेसर साहब से पूछा-"क्यों साहब ! आपको तैरना आता है ?" प्रोफेसर साहब ने कहा- "मुझे तैरना नहीं आता । इस पर मल्लाह ने कहा-प्रोफेसर साहब ! मेरी तो पौन जिन्दगी बेकार गई, परन्तु आपकी तो सारी ही जिन्दगी बेकार गई, आपकी अन्य विद्याएँ आज किस काम आईं ? अगर आप आज तैरने की विद्या जानते तो आपकी सभी विद्याएँ सुरक्षित एवं सार्थक होतीं।" यों कहकर मल्लाह नदी में कूद पड़ा और कुछ ही देर में नदी के किनारे पहुँच गया । प्रोफेसर साहब नदी में डूब गए। _जैसे प्रोफेसर तैरने की विद्या नहीं जानता था, इस कारण उसकी अन्य सब विद्याएँ व्यर्थ गईं, वैसे ही जिसने जीवन विद्या नहीं सीखी, उसकी अन्य सब विद्याएँ बेकार हैं। पैसे कमा लिए, धन का ढेर लगा लिया, बंगला बनवा लिया, फर्नीचर लगवा लिया, कार खरीद ली, इससे क्या सच्ची सुख-शान्ति प्राप्त हो गई ? जीवन सफल हो गया ? नहीं, कदापि नहीं। वर्तमान समस्याओं, दुःख, संघर्ष, परेशानियाँ, अनुशासनहीनता, उलझनों, अशान्ति, शारीरिक, मानसिक पीड़ाओं आदि का मूल कारण खोजा जाए तो यही मिलेगा-जीवन विद्या का अभाव । अशिक्षित और अनपढ़ देहाती लोगों की अपेक्षा शिक्षितों एवं साक्षरों का जीवन अधिक क्लेशयुक्त एवं परेशानी भरा प्रतीत होता है। कारण है-जीवन विद्या का अभाव । 'जीवन कसे जिया जाए ?' यही जानना महत्त्वपूर्ण है। इन्द्रियाँ मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ उपकरण हैं। इनका सदुपयोग करके अपनी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है। मन की शक्ति का तो कहना ही क्या ? उसे जिस कार्य में तत्परतापूर्वक लगा दिया जाए, उसी में चमत्कार पैदा कर देता है । मनुष्य जीवन में बौद्धिक शक्ति, समय की सम्पदा, श्रम रूपी धन आदि एक से एक बढ़कर न्यायतें हैं कि मनुष्य इनसे अभीष्ट नैतिक सिद्धि प्राप्त कर सकता है। मानव-जीवन में आन्तरिक विभूतियाँ भी इतनी हैं कि मनुष्य उनके सदुपयोग और प्रयोग द्वारा आध्यात्मिकशक्ति बढ़ा कर एक दिन सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन सकता है। यदि जीवन की कला और विद्या का समुचित ज्ञान होता तो आनन्द और उल्लास भरा जीवन होता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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