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क्रोधीजन सुख नहीं पाते २३३ बोले-मेरा नाम शान्तिनाथ है।" कुछ देर तक परमात्मचर्चा में लीन होने के बाद उसने फिर वही प्रश्न किया। मुनि का हाथ डण्डे पर गया, बोले-"बहरे तो नहीं हो गए हो, कितनी बार कहूँ। मेरा नाम शान्तिनाथ है।" थोड़ी देर तक वे चुप रहे, फिर अन्यान्य बातें चलीं। फिर मित्र ने पूछा-'क्षमा करिए, मेरा भुलक्कड़ स्वभाव है, आपका नाम ?" इस बार वह डण्डा मित्र के सिर पर पड़ा। उन्होंने कहा-"तुझे पता नहीं, मेरा नाम क्या है ?" मित्र बोला-"बस, अब मैं समझ गया। पता लगाने के लिए ही मैंने तीन बार पूछा था कि आप भीतर से कितने बदले हैं ?' इसीलिए एक आचार्य ने कहा है
"मासोपवासनिरतोऽस्तु तनोतु सत्यम्, ध्यानं करोतु, विदधातु बहिनिवासम् । ब्रह्मवतं धरतु भैक्ष्यरतोऽस्तु नित्यम्,
रोषं करोति सर्वमनर्थकं स्यात् ॥" 'कोई साधक मासिक उपवासी हो, सत्य का पालन करता हो, ध्यान करता हो, गाँव या नगर के बाहर निवास करता हो, ब्रह्मचर्य पालन करता हो, भिक्षावृत्ति में निरत हो, यदि वह क्रोध करता है तो ये सब निरर्थक हैं।' क्रोध करने से बड़ेबड़े साधकों की वर्षों की साधनाएँ मिट्टी में मिल गईं। वे उस साधना से जो साध्य प्राप्त कर सकते थे, वह न कर सके, क्योंकि क्रोध से तो मनुष्य की अधम गति ही होती है, ऊर्ध्वगति नहीं । चण्डकौशिक सर्प ने पूर्वजन्म के साधु-अवस्था में क्रोध करके ही तो अपना जन्म बिगाड़ लिया।
गुरु-शिष्य दोनों जा रहे थे। मार्ग में गुरुजी का पैर एक मरे हुए मेंढक पर टिक गया। यद्यपि वह मरा हुआ था, फिर भी असावधानी से उस पर पैर रखने से वह कुचला गया। इस पर शिष्य ने गुरुजी को सचेत किया— "गुरुजी ! आपके पैर से मेंढक मर गया इसका प्रायश्चित कीजिए।" गुरुजी ने शिष्य की बात सुनीअनसुनी कर दी। अपने स्थान पर आने के बाद शिष्य ने फिर गुरुजी से उसका प्रायश्चित्त लेने का कहा । इस पर गुरु मौन रहे । शिष्य ने सोचा-अभी न कह कर मुझे संध्या-प्रतिक्रमण के समय कहना चाहिए।' ज्यों ही सायंकाल प्रतिक्रमण के समय शिष्य ने पुनः वह बात दोहराई, त्यों ही गुरुजी आग बबूला हो उठे और क्रोधावेश में आकर अन्ट-सन्ट बकने लगे- "मेंढक क्या मरा, मुझे सताने के लिए तुझे शस्त्र मिल गया। ले तुझे बताता हूँ, मेंढक कैसे मर गया, उसका उपाय ?" यों कह कर गुरु शिष्य को मारने दौड़े। शिष्य तो डर कर इधर-उधर छिप गया, मगर अंधेरे में-और फिर अज्ञान के गाढ़ अंधेरे में न सूझने के कारण वे एक खम्भे से टकरा गए
और गश खा कर वहीं गिर पड़े। उन्होंने क्रोधावस्था में ही दम तोड़ा था, इसलिए मर कर चण्डकौशिक नामक दृष्टि विष सर्प बन गए । हा ! क्रोध का कितना भयंकर परिणाम ! साधुत्व की वर्षों की साधना एक बार के क्रोध ने मटिया मेट कर दी।
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