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________________ क्रोधीजन सुख नहीं पाते २३१ क्रोध से आत्मा स्व और पर दोनों को जलाता है, अर्थ, धर्म और काम को जलाता है । तीव्र वैर भी बांध लेता है तथा नीच गति भी क्रोध से प्राप्त करता है। क्रोधरूपी आग इतनी भयंकर है कि उसके कारण अब तक बड़ी कठिनता से उपार्जित पुण्यराशि भस्म हो जाती है जैसे कि जैनाचार्य कहते हैं "दुःखाजितं खलगतं वलभीकृतं वा धान्यं यथा दहति वह्निकणः प्रविष्टः । नानाविधवतदया नियमोपवासः । रोषोऽजितं भवभृतां पुरुपुण्य राशिम् ॥ जिस प्रकार दुःख से अजित खलिहान में रखा हुआ या कोठी में रखे हुए अनाज में अग्नि का एक कण भी प्रविष्ट हो जाय तो वह सारे के सारे अन्न को जला डालता है, वैसे ही अनेक प्रकार के व्रत, दया, नियम, उपवास आदि से बड़ी मुश्किल से उपार्जित एवं अब तक सुरक्षित प्राणियों की पुण्यराशि भी क्रोधाग्नि जला डालती है। लगभग तीन सौ वर्ष पहले आगरे में एक साधु आये। कविवर बनारसीदासजी उससमय जीवित थे । साधु के क्षमादि गुणों की प्रशंसा सुनी तो वे भी दर्शनार्थ गये । विनयपूर्वक साधु से पूछा-"दयासिन्धु ! आपका शुभ नाम मालूम करने की धृष्टता कर सकता हूँ?" "मुझे शीतल प्रसाद कहते हैं ।' कविवर नाम सुनकर वहाँ की तत्त्वचर्चा में लीन हो गये । फिर थोड़ी देर बाद अपना भुलक्कड़ स्वभाव बताते हुए साधु से नाम पूछा। साधु ने अन्यमनस्क भाव से नाम दोहरा दिया। फिर जरा-सी देर के बाद साधुजी से नाम पूछा तो उनका पारा गर्म हो गया। वे भन्ना कर बोले-"तू भी अजीब आदमी है। अबे ! दस बार कह दिया-'हमारा नाम है, शीतलप्रसाद ! शीतलप्रसाद !! शीतलप्रसाद !!! फिर क्यों दिमाग चाटता है ?" कविवर ने साधु का यह कोप काण्ड देखा तो वे उठकर चल दिये, बोले"महाराज ! आपका नाम शीतलप्रसाद नहीं, ज्वालाप्रसाद है।" "अग्निकेरा कोयला, नामा दिया शीतल । बाहर सोना सौ टंच का, अन्दर कोरा पीतल ।" हाँ, तो मैं कह रहा था कि क्रोध एक भयंकर अग्नि है, जिसकी लपटें केवल यहीं तक नहीं, दूर-दूर तक की शुभ कार्यवाही को नष्ट कर देती है। एक चीनी कहावत है The fire you kindle for your enemy often burns yourself more than him." क्रोध एक ऐसी आग है, जिसे तुम शत्रु के लिए जलाते हो, लेकिन वह उसकी अपेक्षा तुम्हें प्रायः अधिक जलाता है।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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