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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २२५ नाश, दोनों के आश्रय स्थानों का सर्वनाश और अग्नि ज्वालाएँ मुझ से देखी नहीं जातीं ।" आखिर सेठ की स्वीकृति पर हमीद खाँ ने रणभेरी बजा कर सेना को वापिस लौटाई | सारे शहर में शान्ति हो गई । पर उस शान्ति का मूल्य नगर सेठ को अपनी पीढ़ियों से कमाई हुई सर्वस्व सम्पत्ति देकर चुकाना पड़ा। नगर सेठ ने सन्तोष की सांस ली कि पैसा भले ही चला गया, नगर तो बच गया। नगर बन्धु सेठ खुशालचन्द की इस निःस्वार्थ-बन्धुता और उदारता की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है । जैसे शरीर के किसी अंग में पीड़ा होती है तो सारा ही शरीर बेचैन हो जाता है। पैर में चोट लगती है तो आँखों में आँसू आ जाते हैं, हाथ उस चोट को दूर करने के लिए प्रयत्न करने लगते हैं, मस्तिष्क को चिन्ता होती है, उसी प्रकार जिसके जीवन में बन्धुता आ जाती है, वह समाज के किसी भी अंग की पीड़ा से बेचैन हो उठता है । यही आत्मभाव का विस्तार है, जो बन्धु में होता है । पारिवारिक जीवन में बन्धुता कई बार भाई-भाई दोनों पारिवारिक जीवन में भी बन्धुता नहीं निभा पाते । परन्तु जिसके हृदय में बन्धुभाव रहता है, वह अपकार करने पर भी अपने भाई को प्रेम से सुधारने का प्रयत्न करता है । एक प्राचीन उदाहरण लीजिए मगध देश में महालय गाँव के सिंह और वसंत दोनों सहोदर भाइयों में अत्यधिक स्नेह था । एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता था । परन्तु छोटे भाई वसंत की पत्नी उन्हें बार-बार बड़े भाई-भाभी की झूठी निन्दा करके उत्तेजित करने लगी । कई बार बड़े भाई सिंह ने उसे स्नेहपूर्वक समझाया, जिससे वह पुनः स्वस्थ हो जाता । एक दिन उसकी पत्नी ने इतने कान भरे कि वह उत्तेजित होकर बड़े भाई के पास पहुँचा और अड़ कर बैठ गया - " आज तो मैं अपना हिस्सा लेकर ही उदूंगा।” बड़े भाई के बहुत समझाने पर भी नहीं माना, तब विवश होकर उसने सम्पत्ति का आधा हिस्सा छोटे भाई को दे दिया । परन्तु ऐसे व्यक्ति के पास लक्ष्मी कहाँ टिकती ? उसने सारा धन फूँक दिया । फिर भी बड़े भाई ने उसे और धन दिया। लेकिन बार-बार वह धन खो देता और बड़ा भाई उसे फिर अपनी सम्पत्ति में से कुछ दे देता । एक दिन आलसी एवं अकर्मण्य छोटा भाई बड़े भाई सिंह पर घूंसे से हमला करने लगा । बड़े भाई ने उस प्रहार से तो बचा लिया अपने को । लेकिन उसे स्वार्थी संसार से विरक्ति हो गई । एक अध्यात्म - साधक मुनि से उसने दीक्षा ले ली । छोटे भाई वसंत ने भी तापस दीक्षा ले ली। दोनों कई जन्मों तक एक दूसरे के सम्पर्क में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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