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________________ १९८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ "प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरम् । त्वसन्तो नाभ्यर्थ्या सुहृदपि न याच्यः कृशधनः ॥ विपद्यच्चधैर्य पदमनुविधेयं च महतां । सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥" __ जिन सत्त्वशीलों को न्याय युक्तवृत्ति ही प्रिय है, प्राण चले जाने पर भी जिनके द्वारा धर्म विरुद्ध मलिन कार्य होना दुष्कर है, जो दुर्जनों से कभी याचना नहीं करते और न ही किसी निर्धन हितैषी मित्र से याचना करते हैं। विपत्ति आने पर जिनका धैर्य ध्वस्त नहीं होता, जो महान् पुरुषों के चरणों का अनुसरण करते हैं । इस प्रकार के सन्तों-सज्जन पुरुषों को न जाने किसने इस विषम असिधाराव्रत का उपदेश दिया है ? वास्तव में, सत्त्वशील पुरुषों को यह उपदेश कोई पोथियों से नहीं मिलता, वह उनके अन्तःकरण से प्रसूत होता है, उनका अन्तःकरण इतना शुद्ध, सात्त्विक, स्वच्छ और ग्रहणशील होता है कि धर्म-अधर्म, हित-अहित, न्याय-अन्याय और कर्तव्यअकर्तव्य को शीघ्र ही पहचान लेता है, और धर्म पुनीत कर्तव्य, नीति, न्याय और हित के मार्ग पर निर्विघ्न रूप से चलता रहता है । वीर हकीकतराय स्यालकोट में मुस्लिम मदरसे में पढ़ता था। एक दिन एक सहपाठी मुस्लिम विद्यार्थी ने सीता के चरित्र पर आक्षेप किया। इस पर हकीकत ने उससे कहा-"सीता के लिए ऐसा न कहो भाई ! जैसी मुहम्मद साहब की लड़की फातिमा थी, वैसी ही राजा जनक की पुत्री सीता थी।" इस पर सभी मुस्लिम विद्यार्थी तन गये और लड़ने पर आमादा हो गये। मौलवी साहब आए तो उन्होंने मुस्लिम विद्यार्थियों का पक्ष लेकर निर्दोष हकीकतराय को खूब पीटा। काजी की अदालत में यह मामला पहँचाया गया। अन्यायी काजी ने आदेश दिया-'हकीकतराय को मुसलमान बना दो, अगर न बने तो, इसका सिर उड़ा दो।" सच्चे धर्म को छोड़कर परधर्म को स्वीकार करना हकीकत के लिए असह्य था। वह मुसलमानों द्वारा समझाये जाने के बावजूद भी अपने धर्म पर दृढ़ रहा। अन्त में, लाहौर में सूवेदार ने उसका सिर कटवा दिया। वीर बालक हँसते-हँसते धर्म पर न्योछावर हो गया, मगर उसने स्वधर्म छोड़कर परधर्म स्वीकार नहीं किया। यही बात गुरु गोविन्दसिंह के पिता गुरु तेगबहादुर के सम्बन्ध में कही जा सकती है। औरंगजेब बादशाह अनेक हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाता था। गुरुतेगबहादुर ने दिल्ली में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया, मगर इस्लाम धर्म का स्वीकार न किया । गुरुगोविन्दसिंह के दो पुत्र थे-फतहसिंह और जोरावरसिंह । दोनों को मुस्लिम बनने के लिए बहुत ही प्रलोभन दिया, भय दिखाया, मगर वे मुस्लिम बादशाह के इस अत्याचार के सामने न झुके। आखिर उन दोनों को जीतेजी दीवार में चिन दिया गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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