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________________ १८२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ देखकर जरा भी चलायमान नहीं होता । जैसा कि सूत्रकृतांग सूत्र में साधु के लिए कहा गया है - (२०२३) 'समयं सया चरे' साधु को सदा समता का आचरण करना चाहिए । योगी आनन्दघनजी ऐसे ही समभावी सन्त थे । उनके मन में सोने और पाषाण पर समभाव था । वैसे तो उन्हें अनेक योग सिद्धियाँ प्राप्त थीं, वे चाहते तो सोना भी बना सकते थे । परन्तु वे इसे मिट्टी समझते थे । एक बार उनके साथी मुस्लिम फकीर ने उन्हें सोना बनाने की रसकूपिका भेजी । संत आनन्दघनजी ठहरे निःस्पृह संत | उन्होंने सोचा - संत को तो कोई योग विद्या जैसी वस्तु देते तो अच्छा था । इसकी मुझे जरूरत नहीं है । यह कहकर उन्होंने रसकूपिका को वहीं जमीन पर उड़ेल दिया । यह देखकर जो व्यक्ति उसे लाया था, वह कहने लगा- आपने कितनी मूल्यवान् वस्तु यों ही गिरा दी, इससे कितना सोना बन सकता था ?" योगी आनन्दघनजी ने पास में पड़ी एक चट्टान पर पेशाब किया, तो वह सोने की बन गई । इसे बताते हुए उस व्यक्ति से कहा - " वह देखो, सोना तो मेरे लिए कोई चीज नहीं है । हम साधुओं के लिए सोना और पत्थर एक-सा है ।" ये और इस प्रकार के जीवन के अनेक क्षेत्र हैं, जहाँ समतानिष्ठ साधक समभाव रखता है । वास्तव में, समत्वनिष्ठ साधक समता का ही अभ्यास करता है, समता का ही ध्यान करता है और समता का ही प्रतिदिन निरीक्षण-परीक्षण करता है । तभी उसके जीवन में समता की नींव पक्की हो जाती है । वह कैसे भी प्रसंगों पर समता से विचलित नहीं होता । साधक चाहे गृहस्थ हो या साधु समतानिष्ठ तभी बनता है, जब वह समता का अभ्यास करता है | साधु के लिए तो यावज्जीवन सामायिक का विधान है, परन्तु गृहस्थ श्रावक के लिए भी नौवां सामायिक व्रत शिक्षाव्रत के रूप में विहित है । उसे भी समता का अभ्यास करने के लिए प्रतिदिन सामायिक का अनुष्ठान करना आवश्यक बताया है। समतानिष्ठ व्यक्ति के लिए आचरणीय समताएँ समता की अनेक कोटियाँ हैं । व्यक्तियों को अपने जीवन में आध्यात्मिक विकास के लिए उन समताओं का आचरण करना परम आवश्यक होता है तभी जीवन बन सकता है | उन विविध कोटि की समताओं में सर्वप्रथम व्यक्ति-समभाव है, जिसका आचरण करना आवश्यक है । एक स्टीमर समुद्री मार्ग से विदेश यात्रा कर रहा था । रास्ते में उसका पेंदा फूट जाने से उसमें पानी भरने लगा । स्टीमर के कैप्टन ने क्षण भर अपने कर्तव्य के विषय में विचार किया और सर्वप्रथम छोटे बच्चों फिर महिलाओं को किनारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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