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आनन्द प्रवचन : भाग ८
जो शत्रु और मित्र पर, मान और अपमान में, शीत और उष्ण, सुख और दुःख आदि द्वन्द्वों में सम है, संसार में रहता हुआ भी संसार की आसक्ति से रहित है ।
जो निन्दा और स्तुति को समान समझने वाला है, और वस्तुम्वरूप पर मनन करता है, जिस किसी तरह से शरीर का निर्वाह होने में सदैव सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिरबुद्धिवाला भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है।
इन दोनों श्लोकों में साधु-चरित पुरुष की समत्ववृत्ति का उल्लेख किया गया है। इनमें शत्रु-मित्र, मान-अपमान, निन्दास्तुति सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में सम रहने के सम्बन्ध में हम विस्तृत विवेचन कर आये हैं।
इसके अतिरिक्त ऐसे साधक को शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों में भी समभाव से रहना आवश्यक है। कई दफा साधक अधिक सर्दी या अधिक गर्मी होने पर घबरा जाता है, अपना सन्तुलन बिगाड़ लेता है । वह हायतोबा मचाने लगता है । ऐसा साधक समता की साधना में कच्चा रह जाता है ।
इसी प्रकार अनुकूल या प्रतिकूल स्थान देखकर भी कई साधक बौखला उठते हैं। या तो वे स्थान की निन्दा या प्रशंसा करने लगते हैं या वे वहाँ से भाग कर अन्यत्र जाने को तत्पर हो जाते हैं। इसीलिए यहाँ भक्त के लक्षणों में 'अनिकेत' विशेषण प्रयुक्त किया गया है । तथागत बुद्ध को देखकर एक राजकुमारी मोहित हो गई थी, उसने विवाह का प्रस्ताव रखा। परन्तु तथागत ने सर्वथा इन्कार कर दिया। इसे उसने अपना अपमान समझा । दूसरे राजकुमार के साथ जहाँ उसकी शादी हुई थी; उसी नगर में एकबार भगवान बुद्ध अपने शिष्य समुदाय सहित पहुँचे । वहाँ की रानी बुद्ध से रुष्ट थी, इसलिए उसने बुद्ध और उनके शिष्यों को हैरान करना शुरू किया। एक दिन बुद्ध के शिष्यों ने निवेदन किया- "भंते ! यहाँ से अन्यत्र चल देना चाहिए। बुद्ध ने पूछा- "क्यों ?" “यहाँ हमारा बहुत ही अपमान होता है, लोगों में भक्ति नहीं है।" शिष्यों ने कहा । आगे जहाँ जाओगे वहाँ भी ऐसी हालत हुई तो फिर क्या करोगे? क्या तीसरी और चौथी जगह जाओगे ? शिष्य बोले-"फिर क्या करें?" तथागत बुद्ध ने कहा- "वत्स ! इससे श्रेष्ठ यह है कि अपमान आदि को मन में न लाकर अपनी समता-साधना में संलग्न रहो, अपमानादि के डर से स्थान बदलना कायरता और दब्बूपन है । स्थानभ्रष्ट आदमी शोभा नहीं पाता।"
इस प्रकार बुद्ध ने प्रतिकूल स्थान में भी समत्व का परिचय दिया। आसक्ति का त्याग भी राग-द्वेषरहित रहकर समता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। यथालाभ सन्तोष का गुण भी समत्व को परिपुष्ट करता है, लाभ-अलाभ में सम रहने की प्रेरणा देता है । मौन भी वस्तु-तत्व का यथार्थ मनन चिन्तन करके मन को सन्तुलित कर लेता है, वह किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं रखता, मानसिक सन्तुलन नहीं खोता। साथ ही स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपने जीवन में समत्व की तुला पर हर वस्तु को तौलकर
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