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साधु-जीवन की कसौटी : समता १७६ अपेक्षा प्रशंसा को पचाना बड़ा कठिन होता है । क्योंकि निन्दा के समय तो व्यक्ति सावधान रहता है, किन्तु प्रशंसा के समय वह गाफिल हो जाता है।
एक चतुर कलाकार ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय सोचा जाए ताकि मृत्यु आए तो खाली लौट जाए। बहुत सोच विचार कर उसने अपने जैसी १२ मूर्तियाँ बनायीं । एक दिन जब मरणकाल में यमदूत लेने आए तो वह कलाकार उन मूर्तियों के बीच में जा कर बैठ गया। यमदूत ने बहुत देखा-भाला, परन्तु असली आदमी को पहचान न सका । लौट कर यमराज से उसने सारी बात कही। यमराज ने उसे पहचानने की तरकीब बताई। यमदूत ने मूर्तियों को देखकर कहा—'वाह ! क्या कमाल की मूर्तियाँ बनाई हैं । ऐसा कलाकार तो आज तक संसार में कोई नहीं हुआ, परन्तु इतनी सुन्दर मूर्तियों में सिर्फ एक ही कमी रही है।" इतना सुनना था कि कलाकार आपा भूल कर प्रशंसा की चकाचौंध में प्रगट हो गया और बोल उठा-"वह कमी कौन-सी रह गई ?" यमदूत ने उसे पकड़ लिया और कहा- "बस, यही कमी रही है।"
हाँ तो मैं कह रहा था कि समता की निष्ठावाला साधक निन्दा-स्तुति में सम रहता है। वह प्रसिद्धि, आडम्बर, प्रतिष्ठा, नामबरी आदि से दूर रहता है। अगर सहज में कोई प्रतिष्ठा या यशकीर्ति उसे मिल जाती है तो भी वह अन्तर से निर्लिप्त रहता है अगर कोई व्यक्ति उससे द्वष या पूर्वग्रह रखकर उसकी बदनामी करने या लोकश्रद्धा गिराने के लिए षड्यन्त्र रचता है, या कोई क्षति पहुँचाता है तो भी वह उसके प्रति कल्याण की भावना रखता है।
मगधसम्राट् श्रेणिक बौद्ध धर्मावलम्बी थे, इसलिए रानी चेलना के गुरु जैनधर्मी मुनि को वह किसी बहाने से नीचा दिखाना चाहता था। ध्यानस्थ श्री यशोधर मुनि के गले में उन्होंने मरा हुआ सांप डाल दिया। इससे चींटियाँ आकर काटने लगीं । रानी चेलना ने देखा तो वह सांप निकाल कर फेंका। थोड़ी देर बाद मुनि का ध्यान खुला तो उन्होंने स्वयं को बदनाम करने वाले राजा तथा सत्कार करने वाली रानी दोनों के प्रति द्वष या राग न रखकर समभावपूर्वक कहा--तुम दोनों का कल्याण हो।” मतलब यह कि संत शत्रु और मित्र दोनों के प्रति समभावी होते हैं । इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-'न या वि पूयं गरहं च संजए'-मुनि पूजा और निन्दा दोनों में विचलित न हो, समभाव पर दृढ़ रहे ।
यही कारण है कि साधु-पुरुष सम्मान और अपमान में सम रहते हैं
भगवद्गीता १२/१८-१६ में साधक (भक्त) कहाँ-कहाँ समभाव रखे ? इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्ण सुख-दुःखेषु समः संगविजितः ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिमौ नी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतनः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रिपोनरः ॥
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