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________________ साधु-जीवन की कसौटी : समता १७७ एक कवि समता को जीवन का शृंगार बताते हुए कहता है समता जीवन का श्रृंगार । बढ़ती विषमता जिससे ऐसा, क्यों करते व्यवहार ? ॥ ध्रुव ॥ विष का बीज वपन करके, किसने अमृत फल पाया ? उज्ज्वलता बिन आत्मा में क्या, धर्म कभी टिक पाया ? सेठ सुदर्शन के समता से स्वप्न बने साकार ॥ समता० ॥ चन्दना की हथकड़ियाँ टूटी, समता की धारा से। मुक्त हो गई देखो क्षण में, कष्टो की कारा से ॥ वीरप्रभु से मिल गया जिसको सुन्दरतम उपहार ॥ समता० ॥ सचमुच समता के पथ पर चलने वाले साधकों के कष्ट, संकट और आफतें कभी टिकी नहीं रह सकतीं। उन्हें समता का सुन्दर प्रतिफल तो मिलता ही है । विषमप्रसंग में भी समता के कारण उनके हृदय में कभी कलुषितता या मलिनता नहीं आती। समता-साधक निन्दा और प्रशंसा, बदनामी और प्रतिष्ठा तथा आलोचनाऔर प्रसिद्धि के क्षणों में न कभी घबराते और उत्तेजित व क्षुब्ध भी नहीं होते हैं, और न वे फूलते हैं, गर्वोन्मत्त होते हैं, अभिमान से ग्रस्त नहीं होते हैं । वे प्रशंसा, प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने के लिए लालायित नहीं होते और न ही कोई निन्दा, बदनामी या आलोचना का काम करते हैं, किन्तु तेजोद्वेषी, ईष्यालु, विद्वेषी या साम्प्रदायिक उन्माद में उन्मत्त लोग अकारण ही उनकी बदनामी करके जनता की दृष्टि में उन्हें नीचा दिखाने, उनकी आलोचना करके समाज में उनके प्रति श्रद्धा को घटाने तथा निन्दा करके उनके उत्कर्ष या प्रसिद्धि को रोकना चाहते हैं । स्वयं उच्चाचारी, क्रिया पात्र या अध्यात्मयोगी कहलाने के लिए दूसरों को नीचा, शिथिलाचारी या घृणित बतलाने की प्रवृत्ति साधु समाज में भी बहुत चल पड़ी है। परन्तु सच्चा साधु इस प्रकार की निन्दा, गाली या अपशब्दों की बौछारों से अपना स्वीकृत पथ नहीं बदलता। वह समभाव के आग्नेय पथ पर चलकर अपनी उन्नत मनःस्थिति का परिचय देता है। एक समभावी साधु कहीं जा रहे थे। एक व्यक्ति ने उन्हें देख कर गालियाँ दी-"तू बड़ा नालायक है, दुष्ट है, गलीच और गंदा है।" समभावी साधु ने शान्ति पूर्वक उत्तर दिया- "भाई ! तुम्हारा कहना बिलकुल सत्य है।" यों कहकर वे आगे बढ़ गये । गाँव के निकट पहुँचे तो नर-नारियों को पता चला और वे झुंड के झुंड उनके स्वागत के लिए आए । वे नारा लगाने लगे-"घणी खम्मा । छह काया के प्रतिपाल ने घणी खम्मा आदि । इस प्रकार का गुणानुवाद सुनकर मुनिवर ने कहा- "तुम्हारा कहना भी सत्य है ।" मुनि की बात सुनकर गाली देने वाला पशोपेश में पड़ गया। उसने सोचा-इन्होंने गाली देने पर भी मुझे सत्य कहा और गुणगान करने वालों को भी सत्य बताया। इसमें कुछ रहस्य होना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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