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________________ १६६ आनन्द प्रवचन : भाग ५ है । जो व्यक्ति कुछ करने से या कहने से पहले दूसरों की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाता रहता है, जिसे दूसरों की नाराजी से बचने के लिए खुशामद, दया, वरदान या याचना का ध्यान रखना पड़ता है, वह कदापि आत्मविश्वासी नहीं बन सकता । आत्मविश्वास का एक ही आधार है— अपनी अन्तरात्मा । बोलने, काम करने, मार्ग चुनने तथा सिद्धान्तानुरूप चलने में अपनी अन्तरात्मा का आदेश, उसी की पवित्र आवाज को मानें, उसी के माध्यम से निर्णय करें । वह आत्मविश्वास ही आपको सिद्धान्त पथ पर चलने के लिए सही राय देगा । 1 अपनी अन्तरामा से आत्मविश्वासपूर्वक निर्णय करके स्वीकृत सिद्धान्त पथ पर चलते समय इस पर ध्यान न दें कि दूसरे लोग मेरे विषय में क्या कहते हैं ? लोगों की आलोचना, छींटाकशी और निन्दा से तनिक भी विचलित न हों । यदि आपका स्वीकृत सिद्धान्त सच्चा है तो निर्भय होकर उसे व्यक्त कीजिए । सिद्धान्त पर चलते समय आनेवाली आशंका, भीति आदि की रुकावट को आत्मविश्वास ही दूर कर सकता है । अमेरिका के इतिहास पुरुष अब्राहम लिंकन सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति थे । परन्तु वे साधन हीन थे । अन्न, वस्त्र, आवास, शिक्षा, सुरक्षा और सहयोग सभी साधनों का अभाव था उनके पास । परन्तु यदि कोई पारसमणि उनके पास था तो वह थाउनका प्रबल आत्मविश्वास । अकेले आत्मविश्वास के बल पर ही उन्होंने अपने असम्भव जैसे सिद्धान्त के संकल्प को पूरा कर दिखाया - मैंने अपने भगवान ( आत्मा ) को वचन दिया है कि दासों की मुक्ति के कार्य को मैं अवश्य पूरा करूँगा ।" लोगों की आलोचनाओं, निन्दाओं और छींटा -कशियों की उन्होंने कोई परवाह नहीं की, और न ही इस पशोपेश में रहे कि मैं क्या करूँगा, कैसे करूँगा ? फ्रांस का महान् नायक नेपोलियन बोनापार्ट भी साधन सम्पन्न न था । किन्तु अटूट आत्मविश्वास के बल पर उसने साधन अर्जित किए और फ्रांस को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का श्रेय पाया । महान् नाविक कोलम्बस आत्मविश्वास के बल पर ही महासागर के दूसरी ओर एक नई दुनिया को खोज कर ही रहा । अनेक विघ्न-बाधाएँ एवं तूफान आए, पर वह अपने सिद्धान्त पर अटल रहा । अतः सिद्धान्तनिष्ठा के लिए आत्मविश्वास - बहुत बड़ा सम्बल और साधन है । सिद्धान्तनिष्ठा के लिए आवश्यक दूसरा गुण है - दृढ़संकल्प | आत्मविश्वास के साथ दृढ़संकल्प का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । सिद्धान्त-रक्षा के लिए मन में दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्, या तो कार्य सिद्ध करके ही छोडूंगा, या शरीर को ही छोड़ दूंगा । सन् १८१८ की बात । राजा राममोहनराय के बड़े भाई जगमोहनराय का देहान्त हो गया । उन दिनों विधवा को भार-भूत समझ कर जिन्दगी भर के खर्चों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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