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________________ १६२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ बदले जाते हैं, परन्तु उस परिवर्तन में भी भाव से सिद्धान्त की रक्षा को मद्देनजर रखा जाता है इसीलिए पाश्चात्य लेखक हैजलिट ने सिद्धान्त का लक्षण बताया"Principle is a passion for truth and right." सत्य और यथार्थ के लिए मन में जोश रहना ही सिद्धान्त है। वास्तव में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि शाश्वत धर्म के अंगों पर निष्ठा रखना ही सिद्धान्तनिष्ठा है। यही कारण है एच. डब्ल्यू. बीचर ने सिद्धान्त और उपयोगी वस्तु का अन्तर बताया है कि 'उपयोगी वस्तु केवल किसी एक घण्टे के लिए होती है, लेकिन सिद्धान्त युगों-युगों तक के लिए होता है। जैसे साधु के लिए मिट्टी या लकड़ी के पात्र रखना केवल उपयोगिता के दृष्टिकोण को लेकर है, किन्तु सोने-चांदी के पात्र उपयोगिता की दृष्टि से अनावश्यक हैं। अतः उनका ग्रहण करना निषिद्ध है । वैसे अपरिग्रह सिद्वान्त की दृष्टि से पात्र मात्र रखना ठीक नहीं है, परन्तु अपरिग्रह के भाव-मूर्छाभाव की दृष्टि से मिट्टी या लकड़ी के पात्र रखना ठीक नहीं है, लेकिन उन पर मूर्छाभाव न रखकर केवल उपयोगिता-संयमपालन की दृष्टि से रखने में कोई आपत्ति भी नहीं है। इस तरह सिद्वान्त रक्षा और उपयोगिता दोनों में सामंजस्य बिठाया जा सकता है। किन्तु जहाँ केवल उपयोगिता की दृष्टि हो, सिद्धान्त रक्षा की उपेक्षा हो, वहाँ अनेक दोषों के प्रवेश का खतरा है। प्रश्न होता है, सिद्धान्तों की मानव-जीवन में क्या आवश्यकता है ? अगर सिद्धान्तों की रक्षा न की जाए तो उससे मनुष्य का क्या बिगड़ जाएगा? प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन महान बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है, जीवन को मोक्ष रूप लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए भी, वह पुरुषार्थ करता है । अपने जीवन को महान् बनाने या मोक्ष रूप लक्ष्य तक पहुँचने के लिए महान् सिद्धान्तों और आदर्शों का सहारा लेकर चलना आवश्यक है। जहाज में एक दिशादर्शक यंत्र लगा रहता है, जिसके द्वारा यह पता चल जाता है कि जहाज किस दिशा में चल रहा है, इसी प्रकार सिद्वान्त भी जीवन नौका के मार्ग-दर्शन या दिशा दर्शन के लिए आवश्यक है, उनके सहारे चले बिना पता ही नहीं चलता कि मनुष्य का जीवन किस दिशा में चल रहा है ? कहीं उलटी दिशा में तो नहीं चल रहा है ? यदि मानव जीवन उलटी दिशा में चलता है तो उससे अपने आपको, अपने समाज, राष्ट्र, परिवार आदि को बहुत बड़ी हानि पहुँचती है । हिंसा, असत्य चोरी, ठगी, व्यभिचार संग्रह-वृत्ति आदि के उत्पथ पर जब जीवन चल पड़ता है तो उससे अपनी आत्मा का तो बहुत बड़ा नुकसान है ही परिवार, समाज, राष्ट्र आदि में भी उससे अशान्ति एवं अव्यवस्था पैदा होती है। इसके विपरीत सिद्धान्तों का सहारा लेकर चलने पर कहीं संघर्ष, टक्कर वैर-विरोध, अशान्ति या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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