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________________ सज्जन होते समय-पारखी १२७ इसीलिए पाश्चात्य साहित्यकार शेक्सपियर कहता है"I wasted time and now doth time waste me." "मैंने समय को बर्बाद किया, अब समय मुझे बर्बाद करता है।" इस उक्ति में कितना सत्य निहित है । बेकार रह कर समय बेकार खोने का कारण काम का अभाव नहीं, बहुधा आलस्य होता है। नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाने वाले अधिकांश वे ही लोग होते हैं जो ऊँची आय की, कुर्सी-पंखे की या शरीरश्रम के अभाव की नौकरी चाहते हैं, श्रम करने में या मेहनत-मजूरी करने में उन्हें अपनी शान और इज्जत घटती मालूम होती है। ऐसे आरामतलब लोगों के लिए बाबूगीरी की नौकरियां मिलनी कठिन हो सकती हैं। परन्तु कस कर मेहनत करने वाले के लिए काम की कमी नहीं है। अधिक पैसे का न सही, अधिक बड़ा न सही, परन्तु आदमी ढूंढे तो हर जगह काम मिल सकता है और उसमें गुजारेलायक तो पैसे उसे मिल ही जाते हैं । थोड़ी कमाई हो तो भी बेकार बैठ कर खुराफात में मन दौड़ाने की अपेक्षा तो उस समय को उसमें लगाए रखना किसी हद तक बुरा नहीं है। किन्तु बेकार रह कर समय को व्यर्थ के विचारों या खुराफातों में लगाना तो भयंकर पाप और अपराध है । आज भारत के अधिकांश लोगों का आधे से अधिक समय बर्बाद होता है। इस आलस का नतीजा यह होता है कि अनेक अंग-प्रत्यंगों में जड़ता आ जाती है, उनकी जीवनीशक्ति घटती है, दुर्बलता, कई बीमारियाँ, मोटापा और हृदय रोग तथा अकाल-मृत्यु की सम्भावना तेजी से बढ़ती है । बहनों में प्राचीनकाल में जब परिश्रम करके समय को व्यतीत करने की आदत थी, तो उनका स्वास्थ्य सुरक्षित रहता था, प्रसव भी आसानी से हो जाता था और श्रम करने से उन्हें भूख अच्छी लगती, नींद भी अच्छी आती थी और शेष समय वे धर्माचरण में भी लगाती थीं । आज आलसी महिलाओं को रोग, मुटापा, अनिद्रा आदि के रूप में महँगा मूल्य चुकाना पड़ता है, धर्मक्रिया में तो उनका मन लगना कठिन होता है। यह सोचना गलत है, बेकार पड़े रह कर समय खोने से स्वास्थ्य बनता है और श्रम करने से बिगड़ता है। प्रत्युत सही बात यह है कि परिश्रमी, दीर्घजीवी और निरोग रहते हैं । जीवन में महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले ही समय और श्रम का महत्त्व जानते हैं। आज सरकारी दफ्तरों में हर काम को धीमी गति से करने का एक फैशन चल पड़ा है । बाबू लोग इसी फिराक में रहते हैं कि उन्हें कम से कम और अधिक से अधिक दाम मिलें। उनमें राष्ट्रभक्ति तो प्रायः समाप्त हो चली है। बल्कि कम से कम काम करके अधिक दाम के लिए अपनी मांगें पेश करना, हड़ताल, तोड़फोड़, उपद्रव एवं दंगे करना आम बात हो गई है। यह स्थिति न तो व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर है और न ही राष्ट्र के लिए । आमतौर से जितना काम करना पड़ता है, अगर उसे राष्ट्र-भक्ति या समाज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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