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पण्डित रहते विरोध से दूर ११३ सचमुच, इस तरह के विरोधी बहुत ही छोटी बुद्धि के निम्न स्तर के लोग होते हैं, जो अकारण ही जलते-भुनते रहते हैं। ऐसे लोगों से उलझने में पण्डित वृत्ति का व्यक्ति अपनी शक्ति व्यर्थ नष्ट नहीं करता। पण्डितजन सदैव ऐसे संकीर्ण स्वार्थी विरोधियों के आचरण कृत्य और हावभावों की उपेक्षा करते रहते हैं। वे ऐसे लोगों से विवाद में समय नष्ट नहीं करते, न व्यर्थ ही सिर खपाते हैं, बल्कि अपने निश्चित कार्य को करते जाते हैं। इसी सन्दर्भ में विदुरनीति (अ-१/२६) में पण्डित का लक्षण बताया है
निश्चित्य यः प्रक्तमते, नान्तर्वसति कर्मणः ।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा, स वै पण्डित उच्यते ॥ जो पहले भलीभाँति निर्धारित करके कार्य प्रारम्भ करता है, कार्य के बीच में विरोध आने पर घबरा कर रुकता नहीं। अपने समय को नहीं खोता, और अपनी आत्मा को वश में रखता है।
गाँधीजी के ही जीवन का एक प्रसंग है। वे विमान से लन्दन जा रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी भी उसी विमान से यात्रा कर रहा था। वह गाँधीजी से बहुत चिढ़ता था। विमान में और तो कुछ सम्भव न था। उसने दो-तीन पृष्ठ गालियों से भर कर आलपिन लगा कर गाँधीजी को दे दिये । गाँधीजी ने उन्हें पढ़े बिना ही धीरे से उन पृष्ठों में लगी आलपिन निकाल कर रख ली और वे पन्ने रद्दी की टोकरी में डाल दिये। चिढ़ाने की दृष्टि से उस अंग्रेज ने कहा-इसमें कुछ सार भी है या नहीं ? आपने पढ़ा या नहीं इसे ?" इस पर गाँधीजी ने मुस्करा कर उत्तर दिया'जो सार था, वह तो डिबिया में रख लिया है। अनावश्यक को रद्दी की टोकरी में डाला जाता है ।"
वास्तव में गाँधीजी ने उन अनावश्यक पन्नों को पढ़ने में समय बर्बाद नहीं किया और क्षुब्ध हुए बिना उसमें लगा पिन निकाल कर रख लिया तथा प्रस्ताव के अनुरूप ही कह दिया। इसी सन्दर्भ में विदुरनीति में पण्डित का एक लक्षण दिया है
'नहष्यत्यात्मसम्माने, नावमानेन तप्यते ।
गांगो हृद इवाक्षोभ्यो, यः स पण्डित उच्यते ॥' जो अपना सम्मान होने पर फूलता नहीं, और न अपमान से संतप्त होता है तथा गंगा के ह्रद के समान सदा अक्षुब्ध रहता है वही पण्डित कहलाता है।
सम्मान और अपमान ये दोनों द्वन्द्व हैं, आत्मविरोधी हैं । पण्डित चापलूस या विरोधी लोगों के द्वारा की गई झूठी प्रशंसा में फूलकर वह अपनी आत्मा की आवाज को ठुकराता नहीं और न ही क्षुब्ध होकर उलटे अनैतिक काम में प्रवृत्त होता है । गंगा का हृद जिस प्रकार अधिक पानी आ जाने पर भी बाढ़ का रूप धारण नहीं करता और न ही छिछला रूप धारण करके उछलता है, उसी तरह पण्डित भी न तो
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