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आनन्द प्रवचन : भाग ८
कराने में उनसे जो बन सकेगा, उसे करने में पीछे न रहेंगे । आप लोग इस समस्या को युग की पुकार समझकर अपने-अपने विचार प्रगट करने का कष्ट करें।"
___ इस अपील पर जहाँ प० प्रमथनाथ तर्कभूषण जैसे पण्डितों ने उनकी बात का समर्थन किया वहाँ कई कट्टर ब्राह्मणों ने इस प्रश्न को निन्दनीय बताया। एक सज्जन ने उनके प्रयास की आलोचना करते हुए यहाँ तक विरोध किया और कहा कि मालवीय को इन कार्यों से नरकगामी होना पड़ेगा।"
यह सुनते ही मालवीयजी हंसकर कहने लगे- "सज्जनो ! अगर इस प्रकार की मानवता एवं समाज की एकता का कार्य करते हुए मुझे एक बार नहीं, हजार बार भी नरक जाना पड़े तो मैं वहाँ के कष्टों के लिए सहर्ष तैयार हूँ। अब तो आपको मेरी बात का समर्थन करना चाहिए।" सभी आलोचक और विरोधी पानीपानी हो गए। यह है सच्चे पण्डित की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति ! इसी सन्दर्भ में चाणक्यनीति में पण्डित का लक्षण बताया है
"प्रस्तावसदृशं वाक्यं स्वभावसदृशं प्रियम् ।
आत्मशक्तिसमं कोपं, यो जानाति स पण्डितः ॥" पण्डित वही है, जो विरोधी से विरोधी वातावरण में भी प्रस्तुत प्रसंग के अनुकूल कथन करता है, अपने स्वभाव के अनुकूल दूसरे का प्रिय करता है, और अपनी शक्ति के समान कोप को जानता है।
प० मदनमोहन मालवीय ने वर्तमान युग की मांग के अनुकूल प्रस्ताव रखा था, उसी के अनुरूप बोले थे।
सन् १९३४ में अस्पृश्यतानिवारण हेतु महात्मा गाँधीजी ने सम्पूर्ण भारत का दौरा किया। वे उड़ीसा के एक गाँव जीजापुर में तेज धूप में दस मील पैदल चलकर पहुँचे थे। वहाँ उन्हें एक झौंपड़ी में ठहराया गया था। गाँधीजी अभी लेटे ही थे कि ५-६ ब्राह्मण पण्डित अस्पृश्यता के सम्बन्ध में उनसे शास्त्रार्थ करने आ गए।
अपने दयालु स्वभाव के अनुरूप गाँधीजी ने उन ब्राह्मणों को देर तक बिठा कर समय बर्बाद करना उचित न समझ कर स्वीकृति दे दी। झोंपड़ी में प्रवेश करते ही गाँधीजी ने नम्रतापूर्वक उन ब्राह्मणों से आने का प्रयोजन पूछा । वे बोले-"आपका अस्पृश्यतानिवारण आन्दोलन अशास्त्रीय और धर्मविरुद्ध है । अतः हम सब आपसे इस सम्बन्ध में शास्त्रार्थ करने आए हैं।"
___ गाँधीजी ने उन ब्राह्मणों के सारे तर्क सुने और अन्त में मुस्कराते हुए बोले"भाइयो ! मैं अपनी हार स्वीकार करता हूँ। अब शायद आप लोगों की बातें भी खत्म हो जाएँ । पर हाँ, इतना मैं अवश्य. कहूँगा कि अस्पृश्यता हमारे धर्म का एक कलंक है । मेरी इस दृढ़ निष्ठा को आपका कोई धर्म ग्रन्थ काट नहीं सकता।" .
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