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________________ पण्डित रहते विरोध से दूर १०६ सबको आत्मवत् देखने वाला पण्डित परदोषदर्शी नहीं होता, क्योंकि उसके लिए कोई पराया है ही नहीं, विरोधी है ही नहीं, तब वह किसके दोष और अवगुण देखेगा, अगर कोई दोष और अवगुण हैं तो उसके अपने हैं। ऐसा पण्डित स्वयं कष्ट और दुःख सह कर भी संसार के प्राणियों को सुख पहुँचाने का प्रयत्न करता है, सांप, बिच्छू, सिंह, बाघ, आदि हिंस्र जन्तु भी उसे अपने परम मित्र लगते हैं । जैनशास्त्रों की भाषा में ऐसे श्रेष्ठ पण्डितों को 'पंडिया पविसक्खणा' (प्रविचक्षण पण्डित) कहा गया है। धम्मपद में ऐसे पण्डितों के लिए कहा गया है-'अत्तानं दमयंति पंडिता' अर्थात् जो अपनी आत्मा का दमन करते हैं, अपना सर्वस्व आत्मीयतावश दूसरों के हित में लगा देते हैं, वे पण्डित हैं। जहाँ ऐसा विरोध का एवं बिकट शत्रुता का वातावरण हो, वहाँ भी वे निर्विरोध रह कर अपनी क्षमा भावना, सहिष्णुता एवं विचारशीलता से विरोध को प्रेम में बदल देते हैं, विकट शत्रुता को मित्रता में बदल डालते हैं। महात्मा गाँधीजी अफ्रीका की जेल में थे। उस समय एक जूलु जाति का खूख्वार और अभद्र व्यक्ति उनकी सेवा में रखा गया था । परमसहिष्णु गाँधीजी उसके अभद्र व्यवहार से कभी अप्रसन्न नहीं होते थे। एक बार उस जूलु जातीय सेवक को अफ्रीका के अत्यन्त जहरीले बिच्छू ने काट खाया । वह घोर वेदना के कारण छटपटा रहा था । गाँधीजी ने चाकू से उस जहरीले स्थान को काट कर मुंह से वहाँ का जहर चूस कर थूक दिया और फिर एक वनस्पति का लेप लगा कर पट्टी बांध दी। कुछ ही देर में उसे आराम हो गया। महात्मा गाँधीजी से वह इतना प्रभावित हो गया की उसी दिन से वह एक नम्र सेवक और मित्र बन गया । यह है सच्चा पाण्डित्य, जिसमें विरोध के विष को अमृत में परिणत करने की शक्ति है। जिसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और आत्मीयता होती है, जैसे सष्टि के किसी भी प्राणी में उच्चता या नीचता दृष्टिगोचर नहीं होती। छोटे-बड़े उच्चनीच या छूत-अछूत का भाव रखना प्रेम नहीं, विरोध है, घृणा है, द्वेष है। प्रेम या मैत्री आत्मा का सहज अविरोधी गुण है, जबकि घृणा द्वष, बैर, आदि आत्मा का विरोधी दुर्गुण है। जो पण्डित होगा, वह इन आत्मविरोधी दुर्गुणों को अपने जीवन में स्थान नहीं देगा । इसीलिए गीता में पण्डित की दृष्टि के विषय में कहा गया है "विद्याविनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समशिनः ॥" "विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण के प्रति, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल के प्रति पण्डित समदर्शी होते हैं।" अपने पत्नी बच्चों तथा रिश्तेदारों तक ही प्रेम को प्रतिबन्धित रखना स्वार्थ है । इसे प्राणिमात्र तक फैलाना ही परमार्थ है। ऐसा पारमार्थिक प्रेम जिसमें आ जाता है, वह व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति समदर्शी हो जाता है। उसकी दृष्टि में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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