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________________ १०६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ उदारता और सहानुभूति नाममात्र को नहीं होती, इसलिए इन्हें सच्चे पण्डित नहीं कहा जा सकता । ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है साक्षरा विपरीता चेत् राक्षसा भवन्ति' अक्षर ज्ञान प्राप्त किये हुए लोग विपरीत होने पर राक्षस हो जाते हैं । तीसरे प्रकार के पोथीपण्डित घर में ही आलसी बनकर पड़े रहते हैं । वे घर में गैर-जिम्मेवार, आलसी एवं अकर्मण्य बनकर पड़े रहने के कारण परिवार के सदस्यों में अपने होने वाले विरोध को दूरदर्शी बनकर नहीं सोच पाते। • प्रमादशंकर मामूली पढ़ा-लिखा ब्राह्मण था। ब्राह्मण होने के नाते लोग उसे पण्डित कहते थे, पर वह कुछ कमाता नहीं था । अपने नाम के अनुरूप ही वह प्रमाद का पुतला था। खाना-पीना, सोना, विषयसुखों का आनन्द लूटना, यही उसका दैनिक कार्यक्रम था। न तो वह धर्माचरण करता था, न परोपकार का कोई काम करता। घर वाले सभी उसे बार-बार कोसते रहते । उसकी पत्नी भी बार-बार झिड़कती थी, पर वह ढीठ होकर सुन लेता । एक बार पत्नी ने लड़कर उसे राजा चन्द्रसिंह के पास आशीर्वाद देने भेजा । राजा ने उसे दरिद्र समझकर भण्डारी पर चिट्ठी लिख दी और कहा-यह चिट्टी बताते ही अभी से सूर्यास्त तक जितना धन तुमसे ले जाया जा सकेगा, वह ले जाने देगा।" यह सुनकर प्रमादशंकर फूला न समाया। वह चिट्ठी लेकर सीधा घर पहुँचा । पत्नी को चिट्ठी बताई। पत्नी ने कहा-यहाँ क्यों आए ? जल्दी पहुँच जाओ न दरबारगढ़ में। परन्तु प्रमादशंकर ने कहा- “खाना खाकर चला जाऊँगा।" पत्नी ने खाना खिलाया। परन्तु प्रमादशंकर खाना खाते ही प्रतिदिन की आदत के अनुसार लेट गया। पत्नी ने झकझोर कर जगाया, और बड़ी मुश्किल से समझा-बुझा कर घर से रवाना किया। मगर वह प्रमादशंकर ही ठहरा। रास्ते में एक विशाल पेड़ की छाया देखकर फिर सो गया। जब नींद खुली, तब शाम होने आई थी । प्रमादशं कर भागा-भागा दरबारगढ़ में पहुँचा। भण्डारी भण्डार बन्द करके अपने घर जा रहा था। प्रमादशंकर ने चिट्ठी दिखाकर बहुत अनुनय-विनय किया, तब वह उसे राजा के पास ले गया। राजा ने इतनी देर होने का कारण पूछा तो प्रमादशंकर बोला-"राजन् ! जरा खाने-पीने और आराम करने में देर हो गई ।" राजा को बहुत गुस्सा आया । उसने अपने सेवक को आदेश दिया-'इसे दो थप्पड़ देकर निकाल दो, फिर कभी न आने देना। इसप्रकार पण्डित प्रमादशंकर को आलस और अव्यावहारिकता के कारण घर और बाहर सर्वत्र विरोध का वातावरण ही मिलता है। प्रमादशंकर जैसे विरोधलिप्त मूर्ख पण्डितों को कौन सच्चा पण्डित कहेगा? यह तो पण्डितपद की विडम्बना है। चौथे प्रकार के पण्डित मूखों में पूजे जाने वाले पण्डित होते हैं। वे लालबुझक्कड़ की तरह कोई अनोखी बात गवारों को बता देते हैं, बस गांव वाले उन्हें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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