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________________ ८० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग हैं और फिर नकली राम-लक्ष्मण के द्वारा उसे नष्ट करवा देते हैं। छोटे-छोटे बालक भी, जिनको रावण के विषय में कोई जानकारी नहीं होती, वे रावण के अभिमान एवं कदाचार की कहानी लोगों की जुबान से सुनते हैं तथा स्वयं भी प्रतिवर्ष उसे स्मरण करने लग जाते हैं । इस प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी, दूसरी से तीसरी और अब तक जितनी मनुष्य की पीढ़ियाँ हुई हैं, सभी रावण के विषय में जानकारी करती हुई उसकी भर्त्सना करती आ रही है और भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा। इस सबका मूल कारण उसका अभिमान या अहं ही था जिसने उसकी आत्मा को अनन्त काल तक परिभ्रमण करने के लिए बाध्य किया और जगत् में भी सदा के लिए अपयशी बनाकर छोड़ा। विभीषण या अन्य न्यायी व्यक्तियों के बार-बार समझाने पर भी वह नहीं झुका और अन्त तक पाषाणवत् बना रहा । अभिमानी पुरुष के विषय में श्री स्थानांगसूत्र में कहा गया है सेलथंभ समाणं माणं अणपविठे जीवे । कालं करेइ रइएसु उववज्जति ॥ अर्थात्-पत्थर के खंभे के समान जीवन में कभी नहीं झुकने वाला अहंकार जीव को नरकगति की ओर ले जाता है । बहन सूर्पणखा मिथ्यामोह रावण की बहन का नाम सूर्पणखा था, जिसे हम निश्चय ही कुमति कह सकते हैं। इस कुमति ने ही रावण को पथ-भ्रष्ट किया था तथा बदले की भावना से भाई को भड़काकर सीता का अपहरण कराया था। यह किस प्रकार हुआ था इसे हम आगे बताएँगे। सूर्पणखा का विवाह क्रोधरूपी राक्षस खर के साथ हुआ था, जिसके दूषण और त्रिशर नामक दो भाई और थे। दूषण तो दोषों का समूह था ही, त्रिशर को आध्यात्मिक दृष्टि से तीन शर यानी तीन शल्य-मायाशल्य, नियाणशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य कहा गया है। खर एवं सूर्पणखा का एक पुत्र था, शंबुककुमार । इसे संज्वलन कहा गया है । क्रोध के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन, इस प्रकार चार भेद हैं । शंबुक को संज्वलन इसलिए कहा गया है कि इसमें क्रोध का अंश अत्यल्प मात्रा में रहता है । जल में खींची जाने वाली लकीर जिस प्रकार हाथ आगे बढ़ाते-बढ़ाते मिटती जाती है, इसी प्रकार संज्वलन क्रोध भी अधिक नहीं टिकता । शंबुक वस्तुतः नरक में ले जाने वाले क्रोधरूपी खर राक्षस के यहाँ संज्वलन के रूप में पैदा हुआ था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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