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________________ आध्यात्मिक दशहरा मनाओ! ७५ महाराजश्री का कथन है कि यह संसार एक विशालकाय या असीम सागर है, जिसमें कर्म-रूपी अथाह जल भरा हुआ है । आप शंका करेंगे कि क्या एक व्यक्ति के इतने कर्म होते हैं ? नहीं, आशय यह है कि संसार में अनंत जीव हैं और सभी के न्यूनाधिक कर्म हैं, अतः सभी के कर्म मिलकर संसाररूपी सागर बना हुआ है । इसीलिए इसे कर्मों का सागर माना गया है । ___ यह तो सागर के विषय में कहा गया । पर आप और हम सभी जानते हैं कि सागर में कहीं-कहीं द्वीप होते हैं, उन द्वीपों पर प्राणी रहते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसमें जल की भयंकर तरंगों के द्वारा भँवर पड़ जाते हैं, जिनमें फँस जाने पर प्राणी का पुन: निकलना असम्भव नहीं तो कठिनतर अवश्य हो जाता है । संसार-सागर में यह सब कैसे है, इसके विषय में भी कवि ने कहा है भ्रम-रूपी भंवर संसार-रूपी समुद्र में कर्मरूपी जल है और स्थान-स्थान पर उस जल में मिथ्यात्व, अविश्वास या शंकारूपी भँवर पड़ते हैं। कल मैंने आपको बताया था कि जहाँ साधक के हृदय में सन्देह का अंकुर पैदा हुआ कि उसकी साधना नष्ट हो जाती है और वह पतन के मार्ग पर गिरता चला जाता है । आज यही बात यहाँ घटाई जा रही है कि संसार-सागर में कर्मरूपी जल तो होता ही है, और साधक अपनी साधना के द्वारा कर्मों के जल को काटता हुआ उसे तैर कर पार करने का प्रयत्न करता है। किन्तु साधनारूपी तैरने की कला को जानने वाला तैराक या साधक भी अगर शंकारूपी भँवर में फँस जाता है तो उसका पुनः उबरना कठिन हो जाता है और वह भँवर में घूमता हुआ अपना इहलोक तो नष्ट करता ही है, परलोक भी गँवा बैठता है। शंकाशील व्यक्ति कहता है ना कोई देखा आवता, ना कोई देखा जात । स्वर्ग, नरक और मोक्ष की गोलमोल है बात ।। बस, ऐसा विचार जिस साधक के हृदय में आ जाय, समझना चाहिए कि वह कर्मजल में पड़े हुए महाभयानक भ्रम-रूपी भँवर में फंस गया है और इस भँवर से निकालना आसान नहीं है । किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति कभी धर्म के प्रति या पाप-पुण्य एवं लोक-परलोक के प्रति स्वप्न में भी सन्देह नहीं करता तथा दृढ़तापूर्वक संवर के मार्ग पर बढ़ता है वह चाहे साधु हो या श्रावक कर्मजल में रहकर भी उससे ऊपर कमल के समान निर्लिप्त रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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