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________________ अश्रद्धा परमं पापं, श्रदा पाप-प्रमोचिनी ५६ रखती है। क्योंकि देवता अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप केवल कुछ काल के लिए ही स्वर्ग में अपार-सुखों का उपभोग करते हैं, किन्तु आत्मा को कर्म-मुक्त करने का प्रयत्न नहीं कर सकते । जबकि मानव अगर सच्ची साधना में लग जाय तो गज सुकुमाल मुनि के समान अल्प-काल में ही समस्त गुणस्थानों को पार करता हुआ पूर्ण कर्मों का क्षय करके सदा के लिए कर्म-मुक्त होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है । स्वर्ग तो उसके समक्ष चीज ही क्या है ? तो बन्धुओ, मैं श्रद्धाविहीन व्यक्तियों के कुतर्कों के विषय में बता रहा था कि ऐसे व्यक्ति शंका और अविश्वास के कारण सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते । हम अचानक ही उत्पन्न न होकर कर्मों के अनुसार कहीं से आए हैं और कर्मों के अनुसार ही कहीं जाना पड़ेगा । पूर्वजन्म हमारा था और अगला जन्म भी होगा । आत्मा की आदि नहीं है और अन्त भी नहीं होगा, यह अजर, अमर और अक्षय है । इस अकाट्य सत्य के प्रति उनका ध्यान नहीं जाता और इसे समझने की जिज्ञासा उनमें नहीं रहती। इस प्रकार के व्यक्ति आत्मा का भला कभी नहीं कर पाते। शास्त्र की गाथा में बताया है कि श्रद्धाहीन साधक यह विचार करता है किः-"किसी तपस्वी को मैंने सिद्धियाँ हासिल करते नहीं देखा और न ही कोई लब्धि या चमत्कार किसी में पाया है, अतः यह सब झूठ है और मैं भी इस झूठ या मिथ्या भावना में पड़कर छला गया हूँ।" बड़े खेद की बात है कि ऐसी निर्बल आत्माएँ जो लोक-परलोक, पुण्य-पाप अथवा बन्धन-मुक्ति पर भी विश्वास नहीं करती, वे सिद्धियों या लब्धियों के पाने का स्वप्न देखती हैं और उन्हें न पाने पर अपने किये गये थोड़े से धर्माचरण पर ही पश्चात्ताप करने लगती हैं । इस प्रकार के व्यक्ति सिद्धियों या विशिष्ट ज्ञान पाने की बातों को मिथ्या मानते हैं, किन्तु वे भूल जाते हैं कि इस वर्तमान युग में क्या साधक अपनी साधना में आने वाली बाधाओं को या प्रत्येक प्रकार के परिषहों को सहन कर पाता है ? उस युग में जबकि भव्य-प्राणी सिद्धियाँ हासिल करते थे, धर्म पर किस प्रकार अनन्य श्रद्धा रखते थे तथा मरणांतक उपसर्ग आने पर रंचमात्र भी मन को डोलने नहीं देते थे । साधु की तो बात ही क्या है, आनन्द और कामदेव जैसे श्रावक, जिन्हें विचलित करने के लिए देवता आते थे और भयंकर से भयंकर उपसर्गों के द्वारा उनकी आस्था की परीक्षा लेते थे। पर धन्य थे वे महापुरुष, जो धर्म के लिए प्राणों की बाजी लगाना पसन्द करते थे पर उससे डिगते नहीं। ऐसी मजबूत श्रद्धा होने पर ही उन्हें अपनी साधना और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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