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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग जबकि वह अपना उद्देश्य ही निश्चित करने में असमर्थ रहता है तो फिर प्रगति करना किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? नत्थनूणं परेलोए ५८ श्रद्धाविहीन या नास्तिक व्यक्तियों का सबसे बड़ा तर्क यही होता है कि परलोक किसने देखा है ? यह शरीर तो पृथ्वी आदि पंचभूतों के मेल से बना है और मरने पर उन्हीं में मिल जाएगा । ऐसे अज्ञानियों से पूछा जाय कि परलोक अगर नहीं देखा गया है तो वह हो नहीं सकता, तब फिर तुमने अपने दादा परदादा या उनसे भी पहले के पूर्वजों को कब देखा है ? पर तुम्हारे देख न पाने से क्या वे थे नहीं, अगर वे नहीं होते तो उनकी वंश-परम्परा में तुम कैसे आते ? दूसरे अगर यह शरीर पंचतत्त्वों से निर्मित हुआ है तो फिर इसमें चेतना कहाँ से आई ? और शरीर के मृत होने पर वह कहाँ जाती है ? सबसे बड़ी तो यह है कि जड़ या असत् भूतों से सत् की उत्पत्ति कभी नहीं होती । अगर चेतनाशक्ति जड़ भूतों के मेल का परिणाम मान भी ली जाय तो पृथ्वी आदि उन जड़ भूतों के पृथक्-पृथक् होने पर भी उनमें कुछ न कुछ चेतना अवश्य होती । पर यह कदापि सम्भव नहीं है तो फिर जड़ भूतों के इकट्ठा कर देने से ही चेतना शक्ति का आविर्भाव क्योंकर हो सकता है ? पाँच ही क्या पचास और पचास हजार जड़ भूतों का पहाड़ खड़ा कर देने पर भी उनमें चेतना का आना असम्भव है । वह इसलिए कि उनमें चेतनाशक्ति हो नहीं सकती और जो वस्तु होती नहीं उसका आविर्भाव कैसे हो सकता है ? जड़ अलग है और चेतन अलग । जड़ वस्तु में लाख प्रयत्न करने पर भी चेतनता लाना किसी भी वैज्ञानिक के लिए सम्भव नहीं है और कभी सम्भव होगा भी नहीं । इससे स्पष्ट है कि चेतनाशक्ति पंचभूतों के मेल का परिणाम नहीं है अपितु वह स्वतन्त्र और सदा अपना अस्तित्व रखने वाली एक महान् शक्ति है, जो कि जड़ शरीर के नष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहती है और तब तक रहेगी, जब तक कि वह अपने कर्मों के आवरणों को छिन्न-भिन्न करके सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर लेगी । और सिद्धावस्था में भी अनन्त काल तक रहेगी अर्थात् वह सदैव रहने वाली शक्ति है । उस चेतना शक्ति का नाम ही आत्मा है। प्रत्येक शरीर से पृथक् होती है, पर अपने शुभ या अशुभ कर्मों के अनुसार निम्न या उच्च योनियों में शरीर प्राप्त किया करती है । पाप कर्मों के कारण वह नरक एव तिर्यंच योनि में भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर पाती है और पुण्य कर्मों के कारण मनुष्य एवं देव - शरीर को धारण करती है । यहाँ प्रत्येक साधक को ध्यान में रखना चाहिए कि मानवयोनि देवयोनि से कम नहीं वरन् उससे अधिक महत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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