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________________ ४२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग ऐसे साधु स्वयं तो कुगतिगामी बनते ही हैं, साथ ही जन-समाज को भी पाप-मार्ग पर चलाते हैं। किसी ने कहा भी है-- गृहीतलिङ्गस्य हि चेद् धनाशा, - गृहीतलिङ्गो विषयाभिलाषी। गृहीतलिङ्गो रसलोलुपश्चेद्, विडम्बनं नास्ति ततोऽधिकं हि ॥ अर्थात्--साधु का वेश धारण कर लेने पर भी यदि धन की आशा बनी रही, विषयों की अभिलाषा न मिटी और रस लोलुपता का क्षय न हुआ तो इससे बढ़कर जीवन में और क्या विडम्बना हो सकती है ? स्वयं तो डूबे हो, औरों को भी ले डूबे ! एक बार किसी गाँव में कुछ साधुओं का आगमन हुआ। उनमें से एक गुरु था और बाकी उसके शिष्य । गुरुजी पढ़े-लिखे थे और प्रतिदिन धन-दौलत की बुराई और उसका त्याग करने का उपदेश दिया करते थे। उनके उपदेश का लोगों पर बड़ा असर हुआ और वे साधुजी को सच्चा संत मानकर भेंट के लिए रुपये आदि लाने लगे। किन्तु प्रारम्भ के दिनों में उन्होंने रुपया-पैसा लेने से इन्कार कर दिया। ___ यह देखकर गाँव के दो साहूकारों ने विचार किया-"हम महात्माजी को भेंट करने के लिए पाँच-पाँच हजार रुपये लेकर चलें। महात्माजी रुपये तो लेंगे नहीं, और हमारी कीर्ति दानवीरों के रूप में फैल जाएगी।" दोनों साहूकारों ने ऐसा ही किया। अगले दिन जब महात्माजी का उपदेश समाप्त हुआ तो साहूकारों ने दस हजार रुपये उनके चरणों के समीप रख दिये तथा इन्तजार करने लगे कि महात्माजी इन्कार करें तो हम अपने रुपये उठालें। किन्तु महात्माजी ने तो उलटे अपने शिष्यों को रुपये उठाने का संकेत किया और उनके सधे हुए चेलों ने आनन्द से रुपये उठाकर यथास्थान रख लिए। दोनों साहूकार अपनी प्रसिद्धि के लोभ में पड़कर रुपये गँवा बैठे और महात्माजी ने रुपयों के लोभ में आकर अपनी साधना को गँवा दिया। इस प्रकार साधु और भक्त दोनों ने ही कर्मों का बन्धन कर लिया। इसीलिए कहा गया है कि समस्त सांसारिक पदार्थों पर से आसक्ति हटाना यानी ममत्व का परित्याग करना ही सच्चा धन है। इसका उपार्जन करने से कर्मों की निर्जरा होती है और व्यक्ति संवर के मार्ग पर बढ़ता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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