SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य ते असत्य दिसे ४१ अपितु सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र की आराधना करने वाला ही सच्चा श्रमण या साधु कहलाने का अधिकारी बनता है और वही वीतराग की वाणी को सही तौर से जिज्ञासु व्यक्तियों को समझाने में समर्थ होता है । दूसरे शब्दों में सच्चा उपदेशक वही बन सकता है जो मलिन और मन्द भावनाओं के काले मेघों को छिन्न-भिन्न करके अपनी आत्मा में क्षमा, दया, विरक्ति, संतोष, तप एवं त्यागमय भावनाओं की शुद्ध एवं ज्ञानपूर्ण ज्योति जगाता है तथा जिसकी दृष्टि में त्रिलोक का राज्य धूल के समान और कनककामिनी कुगति का मार्ग दिखाई देते हैं । ऐसे आत्म-रूप में रमण करने वाले साधु या महापुरुष की वाणी को सुनना श्रुत धन कहलाता है । ऐसे ही धन की आकांक्षा करना मुमुक्षु के लिए कल्याणकारी है । (६) त्याग - त्याग की भावना भी धन कहलाती है । आप विचार करेंगे कि ये दोनों तो विरोधी बातें हैं, फिर इनका मेल कैसा ? इस शंका का समाधान इस प्रकार होता है कि व्यक्ति सांसारिक मोह - ममता का और धन-दौलत के प्रति रही हुई आसक्ति का त्याग करे । सांसारिक सम्बन्धियों के प्रति अपार ममता में गृद्ध रहना कर्म-बन्धन का कारण होता है और धन के प्रति आसक्ति रखने से भी नाना प्रकार के पाप करते हुए कर्मबन्धन किये जाते हैं । जबकि इस देह के छूटते ही सम्पत्ति तो घर पर ही रह जाती है और जिन सम्बन्धियों के लिए व्यक्ति जीवन भर नाना कुकर्म करता है वे श्मशान तक ले जाकर साथ छोड़ देते हैं । मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि आप सब अपनी दौलत लुटा दें और गृह त्याग करके साधु बन जाँय, तभी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकेंगे, अन्यथा नहीं । मेरे कहने का अभिप्राय केवल यही है कि अगर आप संयमी जीवन को नहीं अपना सकते तो सच्चे भावक तो बनें ही । श्रावक के व्रतों का पालन करते हुए भी अगर आप निस्पृही बने रहते हैं और सम्पूर्ण सांसारिक कार्यों को पूरा करते हुए भी सांसारिक वैभव एवं भोग-विलास के प्रति आसक्ति नहीं रखते यानी लोभ-लालच का त्याग कर देते हैं तो शुभ कर्म रूपी धन का संचय करते चले जा सकते हैं । और वह धन निश्चय ही सच्चा धन कहलाएगा क्योंकि आपके साथ चलेगा । ध्यान में रखने की बात यह है कि कर्म-बन्धन भावना से होते हैं । एक गृहस्थ भी अगर संसार में रहते हुए, और सांसारिक कार्यों को करते हुए उनसे निर्लिप्त रहता है तो कर्म - बन्धनों से बच जाता है तथा दूसरी ओर एक साधु घर-बार छोड़कर भी अगर मन में विषय विकार और इर्ष्या-द्वेष पालता है तो अनेकानेक कर्मों का बन्धन कर लेता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy