________________
३६
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
अर्थात जितने भी अज्ञानी या तत्त्व-बोधहीन पुरुष हैं वे सब दुःख के पात्र हैं। इस अनन्त संसार में वे मूढ़ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते हैं।
इसलिए अपना भला चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह यथाशक्य ज्ञान के द्वारा चिन्तन करे और अगर ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से स्वयं यह क्षमता न रखता हो तो संत-महापुरुषों के द्वारा कहे गये वीतराग के वचनों पर पूर्ण आस्था रखते हुए विचार करे कि-'शरीर नाशवान है और आत्मा अनित्य है तथा कृत-कर्मों के अनुसार उनका फल भोगती है । अतः मुझे इसे परलोक के दुखों से बचाने के लिए दया, क्षमा, शांति, सहिष्णुता एवं दान, शील, तपादि आत्म-धर्मों को अपनाना है।'
पर आत्मिक सद्गुण या धर्म तभी आत्मा में टिक सकते हैं जबकि मराठी पद्य के अनुसार दो शर्तों को पूरा किया जाय । पद्य में कहा है-'त्यागुनि माया नार-।' अर्थात् माया यानी धन एवं नार यानी स्त्री को त्यागा जाय । ___ वस्तुतः जब तक व्यक्ति की माया में आसक्ति रहती है, तब तक वह आत्मा के महान गुण संतोष को नहीं अपना सकता । आसक्ति और संतोष दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं । वे साथ-साथ नहीं रह सकते । एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जाता है। सच्चा धन बाहर है या अन्दर ? ___ एक साहकार था। उसने अनैतिकता एवं बेईमानी से अपार धन एकत्रित कर लिया। किन्तु जब वहाँ के राजा को यह बात मालूम हुई तो वह अत्यन्त कुपित हुआ और उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि अमुक साहूकार का सम्पूर्ण धन जब्त कर लिया जाय और वह गरीबों में बाँट दिया जाय ।
जब साहूकार को यह बात मालूम हुई तो उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई और वह माथा पीटता हुआ घर आकर अपनी पत्नी से बोला-"आज हम घोर दरिद्री हो गये, अब क्या होगा ?"
सेठानी ने बड़े आश्चर्य से पूछा-"वह कैसे ?"
शोकग्रस्त साहूकार बोला- "राजा ने मेरा सारा धन छीनकर गरीबों को दे देने का हुक्म दे दिया है।"
पत्नी यह सुनकर हँस पड़ी और बोली-“वाह ! राजा ने धन छीनने का आदेश दे दिया तो आप दरिद्र कैसे हो गये ?"
साहूकार के लिए तो यह बात जले हुए पर नमक के समान थी। वह क्र द्ध होकर बोला-"क्या तुम इतना भी नहीं समझती हो ? जब धन नहीं रहेगा तो हम दरिद्र नहीं तो और क्या कहलाएँगे ?"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org