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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
नवीन कर्मों का संचय कर लेते हैं। इसी को रोते-रोते व्रतों का पालन करना कहा जाता है। ___चौथे प्रकार के पुरुष सबसे निकृष्ट कहलाते हैं । वे सियार के समान रोतेरोते व्रत ग्रहण करते हैं और उसी प्रकार उनका पालन करते हैं । ऐसे व्यक्ति कभी गृह-कलह के कारण, कभी निर्धनता के कारण और कभी पुरुषार्थ में प्रमाद होने के कारण मुनि बन जाते हैं, किन्तु मन की ऐसी निर्बलता को लेकर वे साधना के पथ पर भी किस प्रकार निर्भय होकर चल सकते हैं ? केवल लोकलज्जा के कारण ही कि साधुपना छोड़ने पर दुनिया क्या कहेगी, वे चलते अवश्य हैं पर अपनी आत्मा का भला रंचमात्र भी नहीं कर पाते । क्योंकि मुनिवृत्ति कोई सरल चीज नहीं है अपितु बड़ी कठिन है और निर्बल तथा कदमकदम पर रोने वाली आत्माएँ इस पर गमन नहीं कर सकतीं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है
जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं । जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणायरो।
जहा तुलाए तोलेऊ, दुक्करं मन्दरोगिरी। अर्थात्-मुनिवृत्ति मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाना है या भुजाओं से अथाह सागर को तैर कर पार करना है अथवा सुमेरु पर्वत को तुला पर रख कर तोलना है।
वस्तुतः मुनिवृत्ति एक ऐसी महान् कसौटी है जिस पर साधक के संयम, धैर्य, साहस, शांति, सहनशीलता एवं शुद्धता, सभी की परीक्षा हो जाती है । इस जबर्दस्त कसौटी पर सिंह के समान वीर पुरुष ही खरे उतर सकते हैं । कायर और अज्ञानी प्रथम तो इसे ग्रहण ही नहीं कर पाते और कदाचित ग्रहण कर भी लेते हैं तो बिरले ही उसे यथाविधि पालन करते हैं अन्यथा सियार के समान रोते-धोते उसे पालते हैं और कभी-कभी तो पतित भी हो जाते हैं ।
यह सब दुष्परिणाम अज्ञान का ही होता है । अज्ञान के कारण ही साधक सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझने लगता है। विघ्न-बाधाओं से घबराकर वह सच्ची साधना से प्राप्त होने वाले अनन्त सुख पर विश्वास नहीं करता तथा संसार के क्षणिक सुखों को सुख समझकर उन्हें ग्रहण करने की आकांक्षा करता है। मराठी भाषा में अज्ञान को नष्ट करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है
अज्ञानाचे भस्म करावे, ज्ञान स्वरूपी मन विचरावे,
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