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सत्य ते असत्य दिसे
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संयम का मार्ग अपनाया था । उच्च जाति एवं अपने आपको उच्च कुल का मानने वाले व्यक्तियों ने फिर भी उनका अनादर करने की कोशिश में कमी नहीं रखी, किन्तु उन्होंने पूर्ण जितेन्द्रिय एवं क्षमा के सागर बनकर पूर्ण सिंह वृत्ति से संयम का पालन किया तथा अपने साथ दुर्व्यवहार करने वालों को भी सही मार्ग बताया । तभी कहा गया है
सोबागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी।
हरिएसबलो नाम आसि भिक्ख जिइन्दिओ॥ अब नम्बर आता है दूसरे प्रकार के पुरुष का । इस विषय में कहा गया है कि इस प्रकार का साधक सिंह के समान व्रत ग्रहण करता है और सिंह के समान ही उनका पालन करता है । इस श्रेणी के साधकों के अनेकानेक उदाहरण हमारे धर्मग्रन्थों में पाये जाते हैं । मुनि गजसुकुमाल ने तो केवल आठ वर्ष की अल्पवय में ही मुनिधर्म अंगीकार कर लिया था तथा उसी दिन अपने ससुर सोमिल ब्राह्मण के द्वारा मस्तक पर धधकते अंगारे रखने पर भी अपने परिणामों को रंचमात्र भी विचलित नहीं होने दिया। बालवय में ही सिंहवृत्ति से संयम अपनाना और उसी वृत्ति से पालन कर लेने का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण और क्या हो सकता है ? सच्चे साधक इसी प्रकार महाव्रत ग्रहण करते हैं और पूर्णतया निर्भय रहकर मरणांतक परिषहों से भी विचलित न होते हुए उनका पालन करके सदा के लिए संसार-मुक्त हो जाते हैं ।
'ठाणांगसूत्र' के अनुसार तीसरे प्रकार के पुरुष वे होते हैं जो प्रारम्भ में तो सिंह के समान गर्जना करते हुए व्रत धारण करते हैं, किन्तु उसके पश्चात् संयम के मार्ग में आने वाली छोटी-छोटी बाधाओं और तकलीफों से घबराते हुए किसी न किसी प्रकार सियार के समान रोते-रोते उनका पालन करते हैं। अज्ञानपरिषह के सामने आने पर, और उससे घबरा जाने वाले व्यक्ति ऐसा ही करते हैं । बुद्धि के अभाव में जब वह ज्ञान हासिल नहीं कर पाते और लोगों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते तो अपने अज्ञान के कारण विचार करने लगते हैं कि-"मैंने व्यर्थ ही साधुत्व ग्रहण कर लिया । अगर संसार में रहता तो सांसारिक सुखों का भोग तो करता।" अज्ञान के कारण ही उन्हें संयम में दुःख और सांसारिक सुखों में आनन्द दिखाई देने लगता है। कभी-कभी उपवास या उससे अधिक, बेला-तेला ग्रहण कर लेने पर भी अगर स्वास्थ्य बिगड़ा तो सोचते हैं, तपस्या नहीं की होती तो अच्छा रहता । कहने का अभिप्राय यही है कि अज्ञान के कारण ही साधक संयम-मार्ग में आने वाले कष्टों से घबराकर अपने मुनिधर्म के व्रतों पर पश्चात्ताप करते रहते हैं और खेद-खिन्न होते हुए
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