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________________ ४०० आनन्द प्रवचन : सातवां भाग महात्मा जी के पास ज्ञानाभ्यास की इच्छा लेकर जाने वाले दोनों ही लड़के समान थे, किंतु एक गुरु के शब्दों को कड़वी दवा समझकर पी गया और उसके परिणामस्वरूप ज्ञानी एवं सज्जन पुरुष बना। पर दूसरा गुरु के कटु शब्द की अवहेलना कर वहाँ से चलता बना और धीरे-धीरे अधःपतन के मार्ग पर बढ़ गया। इसीलिए सत्य को धर्मरूपी पान में खोंसी हुई लवंग कहा जाता है । लौंग चरपरी होने पर भी मुंह का स्वाद ठीक करती है और सत्य कटु होने पर भी आत्मा को शुद्ध बनाता है। अब पान में डली हुई अगली चीज क्या है; इसका वर्णन करते हैं। सौजन्य-रूपी सुपारी जिनधर्मरूपी पान में जीव दयारूपी इलायची, क्षमारूपी खैरसार और सत्यरूपी लवंग होती है, पर उसमें बहुत देर तक टिकने वाली सौजन्यतारूपी सुपारी भी होती है, जो बहुत समय तक बनी रहती है। आपके साधारण पान में जो सुपारी होती है, वह बहुत चलेगी तो घंटे-दो घंटे, उसके बाद तो समाप्त हो ही जाती है । कितु सौजन्यता रूपी सुपारी मानव के व्यक्तित्व में इस प्रकार मिल जाती है कि वह जीवन भर भी प्रभावहीन नहीं हो पाती । अर्थात् उसकी प्रक्रिया सदा आचरण में उतरती रहती है। सौजन्यता का अर्थ है सज्जनता। जिस व्यक्ति में सद्गुण होते हैं उसे सज्जन कहते हैं और उसकी उत्तम भावनाएँ ही सौजन्यता कहलाती है। जिस व्यक्ति में सौजन्यता होती है, वह सज्जन व्यक्ति निराकुल एवं निर्बाध रूप से आत्म-कल्याण के पथ पर बढ़ता है। कोई भी उस भव्य प्राणी को पकड़ कर रोक नहीं सकता और न ही शरीर रूपी करागार में कभी कैद कर सकता है । पूज्यपाद श्री अमीऋषिजी महाराज ने एक बड़ा सुन्दर पद्य इस विषय में लिखा है, जिसमें बताया है कि आत्म-गुणों को जीवन में उतारने वाले व्यक्ति निश्चय ही शिवपुर जाते हैं, कोई भी उनका पल्ला पकड़ कर उन्हें वहाँ जाने से नहीं रोक सकता। पद्य इस प्रकार है टेरत संत प्रवीण गुणी सदग्रन्थ सबे हित की उचरे है। ये जग-भोग असार लखी तजि के उर ज्ञान विराग धरे है। शील संतोष क्षमा करुणातप धीरज धारि प्रमाद हरे है। धारत धर्म अमीरिख या विध को शिव जात 'पलो' पकरे है ? जो महामानव संतों का एवं ज्ञान-प्रवीण गुणियों का आह्वान करता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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