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ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले
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भी जितना कर लेना चाहिए वह कर लिया है। किन्तु तुम दोनों ने अपनेअपने ज्ञान को अभी उपयोग में लाना नहीं सीखा। जब तक ज्ञान आचरण में नहीं उतरता, तब तक उसका महत्त्व ही क्या है ? सारा का सारा निरर्थक
और दिमाग पर बोझ है । पर तुम्हारे इस गुरुभाई ने जितना भी हासिल किया है उसे आचरण में लाना सीख लिया है अतः वह तुम्हारी तुलना में अधिक ज्ञानी साबित हुआ है । याद रखो कि अधिक ज्ञान हासिल करने की जितनी आवश्यकता नहीं है, उतनी आवश्यकता थोड़े से ज्ञान को काम में लाने की है । जीवन को उन्नत और सुन्दर बनाने के लिए थोड़ा-सा ज्ञान भी काफी है अगर मनुष्य उसे उपयोग में लाना सीख जाय ।"
दोनों शिक्षित छात्रों ने गुरु की बात को समझकर अपना मस्तक झुका लिया और तीसरा छात्र प्रसन्न तथा संतुष्ट होकर अपने घर चला गया । धर्मग्रन्थों में भी आचरण की महत्ता को बताते हुए कहा गया है"णाणं चरित्तसुद्धं थोओ पि महाफलो होई।"
-शीलपाहुड ६ अर्थात्-चारित्र से विशुद्ध हुआ ज्ञान यदि अल्प भी है, तब भी महान् फल देने वाला है।
तो बन्धुओ, प्रत्येक आत्मार्थी को शिक्षा का अधिकाधिक बोझ अपने ऊपर लाद लेने की अपेक्षा आत्मा में छिपे हुए सद्गुण रूपी रत्नों की पहचान पहले करना चाहिए । पूज्य श्री अमीऋषिजी महाराज ने भी अपने पद्य में आगे यही कहा है जो भव्य जीव अपने अन्दर रहे हुए इन रत्नों की परख कर लेता है, उसका दारिद्रय सदा के लिए मिट जाता है । यानी उन गुणों को अपना लेने वाला और आचरण में उतार लेने वाला व्यक्ति शाश्वत शान्ति एवं स्थायी आनन्द के असीम कोष को प्राप्त कर लेता है और उसे फिर संसार में भटकने की आवश्यकता नहीं रहती।
मराठी भाषा में कहा गया हैनर रत्न एक नोची, वरकढ़ रत्नें ही आउ नावाची । बुडविती न च वा तारिती, जैसे चित्रे ही आउ, नावांची ॥
इस काव्य में कहा गया है कि मनुष्य तो आकृति से असंख्य होते हैं, किन्तु जो व्यक्ति सद्गुणों का धारी है वही सच्चा नर-रत्न कहलाता है बाकी तो नाम के ही मानव-रत्न कहे जाते हैं और काँच के टुकड़ों के समान उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता।
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