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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पढ़ गये और न जाने कितना क्या, उन्होंने कण्ठस्थ भी कर लिया। बचा एक तीसरा छात्र । वह बेचारा बहुत मन्द-बुद्धि था अत: कुछ भी नहीं पढ़ सका। बहुत ही थोड़ा ज्ञान उसके पल्ले में पड़ा, पर करता क्या ? जो कुछ सीख पाया, उसी को आचार्य की कृपा समझने लगा। __ छात्रों ने अपना शिक्षा-क्रम पूरा हो जाने पर घर जाने की अनुमति आचार्य से माँगी । आचार्य ने उत्तर दिया-"ठीक है, मैं जल्दी ही इस विषय में अपना निर्णय बता दूंगा।" ___ इसके कुछ ही बाद एक दिन शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए आचार्य ने आश्रम के प्रवेश-द्वार पर बहुत से काँटे चुपचाप बिखेर दिये और तीनों छात्रों से कहा-“बाहर पड़ी हुई लकड़ियाँ जल्दी-जल्दी लाकर अन्दर अमुक स्थान पर जमा दो।" ___ गुरु की आज्ञा पाते ही तीनों शिष्य जल्दी-जल्दी बाहर की ओर भागे पर आश्रम के दरवाजे तक पहुंचते ही तीनों के पैरों में काँटे चुभ गये । पहले शिष्य ने काँटों की परवाह न करते हुए केवल अपने पैरों में चुभे काँटे निकाले और जाकर लकड़ियाँ इकट्ठी करने लगा । दूसरा शिष्य काँटे चुभ जाने पर खड़ा हो गया और मन ही मन कुछ सोचने लगा। किन्तु तीसरा मन्दबुद्धि वाला शिष्य वहाँ से लौटकर आश्रम को गया और एक झाडू ले आया । उस झाडू से वह धीरे-धीरे काँटों को बुहारकर साफ करने में लग गया, लकड़ियों की ओर गया ही नहीं। ___ आचार्य बहुश्रुति दूर खड़े-खड़े तीनों शिष्यों के कार्य-कलाप देख रहे थे। उस समय तो वे कुछ नहीं बोले, पर अगले दिन उन्होंने तीनों को बुलाया और मन्द-बुद्धि वाले शिष्य से कहा--"वत्स ! केवल तुम घर जा सकते हो, ये दोनों अभी यहीं रहेंगे क्योंकि इन्होंने पूरी शिक्षा हासिल नहीं की है।"
आचार्य की यह बात सुनकर दोनों कुशाग्र-बुद्धि वाले और पाठ्यक्रम की सभी पुस्तकें अच्छी तरह पढ़ जाने वाले शिष्यों से रहा नहीं गया और उनमें से एक बोला___"गुरुदेव ! हम तो सारी पुस्तकें पढ़ चुके हैं, जबकि इसने सम्भवतः इतने दिन में एक भी किताब पूरी नहीं की होगी। इस पर भी इसको आप छुट्टी दे रहे हैं और हमें कह रहे हैं कि ज्ञान अधूरा है। ऐसा क्यों ? वास्तव में तो इसका ज्ञान अधूरा है । अतः इसे यहाँ रहना चाहिए।"
आचार्य ने उन शिष्यों से भी स्नेहपूर्वक कहा"छात्रो ! यह ठीक है कि तुमने अधिक किताबें पढ़ ली हैं और कण्ठस्थ
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