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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
लोक-लिहाज या पोल खुल जाने के डर से उस व्यक्ति का मनमाना आचरण करना बन्द हो गया ।
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इससे वह दुष्ट बड़ा क्रोधित हुआ और दिन-रात संत को कोसने और गालियाँ देने लगा । उसकी गालियाँ सुनकर महात्मा का शिष्य घबरा गया और उनसे बोला – “भगवन् ! किसी और स्थान पर चलिए, मुझसे दिन-रात इस व्यक्ति का निरर्थक गालियाँ देना सहन नहीं होता ।"
इस पर महात्माजी ने कहा - " वत्स ! यह तो हमारे लिए बड़ा सुन्दर अवसर है अत: जितने दिन इस नगर में रहना है, हमें यहीं रहना चाहिए ।"
गुरुजी की बात सुनकर शिष्य मुँह बाये खड़ा रह गया । वह उनकी बात समझा नहीं अत: प्रश्नसूचक दृष्टि से देखता रहा ।
इस पर महात्मा जी ने कहा - "बेटा ! वह व्यक्ति अज्ञानी है जो निरर्थक गालियाँ देकर या कटु वचन कहकर कर्मों का बन्धन करता है, किन्तु हमारे लिए वह कसौटी है कि हम दुर्वचन सुनकर उन्हें समभाव से सहन कर इस पर खरे उतरते हैं या नहीं । कटुवचन या गालियाँ हमारे लिए परिषह हैं और इस परिषह को जीतने पर ही कर्म - निर्जरा हो सकती है । समभाव के अभाव में हम कितनी भी तपस्या या साधना क्यों न करें, हमारी आत्मा संसार से मुक्त नहीं हो सकती अत: तुम उस नादान को दया का पात्र समझकर समभाव एवं क्षमाभाव से उसे सहन करो; किंचित भी मन को विचलित न होने दो ।"
वस्तुतः समत्व एवं क्षमा साधना और संयम का सर्वप्रथम चरण है । तभी कहा गया है
किं तिव्वेण तवेणं, कि जवेणं किं चरितेणं । समयाइ विण मुक्खो, न हु हूओ कहवि न हु होई ॥
गाथा में स्पष्ट बताया है— चाहे कोई कितनी ही तीव्र तपस्या करे, जप करे और मुनि वेश धारण करके स्थूल क्रिया काण्डस्वरूप चरित्र का पालन करे; किन्तु समभाव रूप सामायिक के अभाव में न किसी को मुक्ति मिली है और न मिलेगी ।
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- सामायिक प्रवचन
तो बन्धुओ ! संत अपने शिष्य को इस प्रकार समझाकर पूर्ण समत्व एवं कषाय-रहित भाव से अपनी साधना में लग गये । उधर पड़ौसी का कार्य जारी हा अर्थात् वह उसी प्रकार संत को कोसता रहा एवं गालियाँ देता रहा । किन्तु एक दिन उसकी गालियाँ सुनाई नहीं दीं और पड़ौस के घर में
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