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________________ ३४६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग "किन्तु मुझे मान सहित धारण करने वाले महापुरुष कभी भी किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं करेंगे तथा दुःखों के विशाल सागर को भी सहज ही पार कर जाएँगे।" वस्तुतः हम ऐसा ही प्रत्यक्ष में देखते भी हैं। जो दुराचारी तथा कुशील को अपनाने वाले व्यक्ति होते हैं, वे अपना धन, स्वास्थ्य, सम्मान आदि सब खो देते हैं तथा जीवन के अन्त में पश्चात्ताप एवं आर्तध्यान करते हुए मृत्यु को प्राप्त होकर दुर्गति में जाते हैं । विषय-विकार मनुष्य के जीवन को बर्बाद कर देते हैं और यह दुर्लभ तथा सर्वोत्तम जीवन उसके लिए वरदान न बनकर घोर अभिशाप बन जाता है। इसीलिए भव्य जीव कुशील के दलदल में न फंसकर शील रूपी रथ पर सवार होते हैं तथा पवन-वेग से भव-सागर पार कर जाते हैं । जीवात्मा के लिए आगे बताया है कि उस राजा के पास क्षमा रूपी हाथी रहता है। सेना की शोभा हाथी के बिना नहीं होती और जहाँ कठिन समस्या सामने आती है, हाथी के अलावा कोई भी उसका हल नहीं कर पाता । उदाहरणस्वरूप कई स्थानों पर हमने देखा है और आपने भी देखा या पढ़ा होगा कि प्राचीन राजा लोग अपने नगर के विशाल द्वारों में तथा महलों के द्वारों में भी लोहे के बड़े-बड़े कीले लगवाया करते थे जो आज भी देखने को मिलते हैं । उन द्वारों को खोलने में या तोड़ने में हाथी के सिवाय कोई भी सक्षम नहीं हो पाता था। अत्यन्त मजबूत और नुकीले कीलों से युक्त उन वृहत्काय दरवाजों को बड़े-बड़े शक्तिशाली योद्धा भी तोड़ नहीं पाते थे, पर सधे हुए हाथी कीलों की चुभन से लहू-लुहान होते हुए भी अपने मस्तक से भारी टक्करें मार-मारकर उन्हें खोलने में या तोड़ने में सफल हो जाते थे। क्षमारूपी गज या हाथी भी ऐसा ही ताकतवर होता है जो दुर्जन से दुर्जन मनुष्य के हृदय पर जड़े हुए क्रोधरूपी जबर्दस्त किवाड़ों को अपनी शक्ति के द्वारा खोल देता है तथा उसके अन्दर रहे हुए मन पर अधिकार कर लेता है। एक क्षमावान के सामने हजार क्रोधी भी आ जाएँ तो उनका पत्थर हृदय मोम बने बिना नहीं रह सकता। चण्डकौशिक नामक भयानक दृष्टिविष सर्प भी भगवान महावीर की क्षमा के कारण निर्विष के समान बन गया । प्रत्येक महापुरुष क्षमा को सबसे बड़ा धर्म मानकर औरों से क्षमा याचना करते हैं तथा स्वयं भी औरों को क्षमा प्रदान करते हैं । होना भी यही चाहिए। यह नहीं कि स्वयं से गलती हो गई तो कुछ नहीं कहा तथा औरों से छोटा-सा भी अपराध हो गया तो बरस पड़े । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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