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मोक्ष गढ़ जीतवा को
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नाव नहीं छोड़ेंगे तो घर नहीं मिलेगा और घर आना चाहेंगे तो नाव छोड़नी पड़ेगी। जब दो में से एक को, यानी घर और नाव में से किसी एक को चुनना पड़ेगा तो आप घर को ही तो चुनेंगे और स्वयं ही नाव से ऊबकर उसे छोड़ देंगे।
बस यही हाल पुण्य का है । जब तक संसार-सागर पार करना है, तब तक वह अच्छा है और अच्छा लगता भी है । किन्तु आपकी आत्मा का घर तो मोक्ष है और आप मोक्षरूपी घर पर जल्दी से जल्दी पहुँचना भी चाहते हैं। उस हालत में पुण्य को नहीं छोड़ें यह कहना हास्यास्पद और अज्ञानपूर्ण है । जब तक आप पुण्य को पकड़े बैठे रहेंगे, तब तक मोक्षरूपी घर आप से दूर रहेगा। उसे छोड़ने पर ही घर को पा सकेंगे।
तो मैं आपको यह बता रहा था कि जीव, अजीव, पाप और पुण्यादि सभी तत्त्वों के विषय में ज्ञान के द्वारा ही जानकारी हो सकती है । हमारी आत्मा में तो अनन्तज्ञान छिपा है, आवश्यकता उसे बाहर लाने की है। कवि श्री ने आत्मा को उसके शद्ध एवं ज्ञानमय स्वरूप की दृष्टि से देखकर ही राजा बताया है तथा कहा है कि उसके पास ज्ञान-रूपी अक्षय खजाना है ।
पद्य में आगे कहा है-जीवात्मा रूपी राजा के पास शील रूपी रथ है । इस रथ पर सवारी करके ही वह संसार-रूपी रणस्थल में तीव्र गति से आगे बढ़ता है। शीलवान की आत्मा बड़ी शक्तिशाली होती है। सभी धर्म, सभी शास्त्र, सभी ग्रन्थ और पुराण शील की अपार महिमा का वर्णन करते हैं । शीलव्रत स्वयं भी मानो पुकार-पुकार कर कहता है कि जो मेरा अवलंवन लेगा, उसका सदा मंगल होगा। किसी कवि ने कहा भी है
शील कहे मम राखत जे, तिनकी रछिया तिन देव करेंगे। जे मम त्याग कुबुद्धि करें, तिन देव कुपे तिन सुक्ख हरेंगे। ठौर नहीं तिन लोक विखें, दुःख शोक अनेक सदैव धरेंगे । जारत हैं तिन्हि ताप तिन्हि, मम धारत आरत सिन्धु तरेंगे ।
शील का कितना सुन्दर कथन है कि-"जो भव्य पुरुष मेरी रक्षा करेंगे उसकी रक्षा स्वयं देवताओं को आकर करनी पड़ेगी और जो दुर्जन या दुराचारी व्यक्ति कुबुद्धि के वशीभूत होकर मेरा त्याग करेंगे, यानी अनाचार को अपनाएँगे; उनसे कुपित होकर देव उनके समस्त सुखों का हरण कर लेंगे। ऐसे व्यक्तियों को संसार भर में कहीं ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा तथा वे निरन्तर दुःख एवं शोक के सागर में डूबते-उतराते हुए छटपटाते रहेंगे । आधि, व्याधि एवं उपाधि, ये तीनों ताप उन्हें सदा पीड़ा पहुँचाते रहेंगे ।"
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