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________________ सुनकर सब कुछ जानिए ३३५ करें ? रास्ता निकालना पड़ा और अपनी वणिक-बुद्धि जो कि सर्वोच्च कहलाती है उसके द्वारा कह दिया-'इतना धन इस पुत्र का है, इतना दूसरे का और बचा हुआ पौत्रों का है।" यह हाल है आपके व्रत-पालन का। इस पर भी आप कहते हैं-'पुराने जमाने में तेला करते ही देवता सेवा में हाजिर हो जाते थे, पर आज मास-खमण करने पर भी किसी देव की शक्ल दिखाई नहीं देती । पर आप मासखमण भी तो वैसे ही करते हैं जैसे सामान्य व्रतों के पालन में धर्म को धोखा देते हैं। क्या आप तपस्या करते समय अपने मन, वचन एवं शरीर को उसी प्रकार निर्दोष रखते हैं, जिस प्रकार पुराने समय में साधक रखते थे? नहीं, केवल अन्न ग्रहण न करने के अलावा और किसी प्रकार का संयम आप नहीं रख पाते । यही कारण है कि देवताओं के सेवा में उपस्थित न होने का। आप मनुष्यों को धोखा दे सकते हैं देवताओं को नहीं, क्योंकि उन्हें अवधिज्ञान होता है। तो बन्धुओ ! अगर आप यथार्थ में ही पापों से नफरत करते हैं और आत्मकल्याण की चाह रखते हैं तो आपको संवर के मार्ग पर चलना चाहिए । संवर का मार्ग आप धर्मोपदेशों से तथा स्वाध्याय से समझ सकेंगे। किन्तु आपको वीतराग प्रभु के वचनों पर विश्वास करना होगा तथा उनकी आज्ञाओं को जीवन में उतारना होगा। इसमें तर्क-वितर्क नहीं चल सकते । जहाँ तर्क-वितर्क करने की और शंका की भावना आपके हृदय में आई कि आप गुमराह हो जाएँगे । एक उदाहरण है बैल वकील नहीं है ! एक वकील घूमते-घामते किसी तेली के घर की तरफ निकल गये। उन्होंने जीवन में कभी कोल्हू चलते नहीं देखा था अतः बड़े ध्यान से बैल को आँख पर पट्टी बाँधे घूमते हुए देखने लगे। ठीक उसी समय तेली जो कि अन्दर सोया हुआ था, आँखें मलते-मलते बाहर आया और वकील साहब को खड़े देखकर बोला--"आप कैसे पधारे हैं, साहब ?" वकील ने हँसते हुए कहा-"भाई, मुझे चाहिए कुछ नहीं, मैं तो इस बैल को लगातार गोल दायरे में चलते हुए देखकर खड़ा हो गया था। पर यह तो बताओ कि अगर तुम सोये रहते और यह बैल चलना बन्द कर देता तो तुम्हें कैसे पता चलता ?" "क्यों ? इसके गले में घन्टी जो बँधी हुई है। जब तक यह चलता रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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