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आनन्द प्रवचन: सातवाँ भाग
पर नया उपार्जन रंचमात्र भी नहीं किया अर्थात् मूल पूँजी बैठे-बैठे खा गये; नया एक पैसा भी नहीं कमाया । फल यह हुआ कि दिवालिया बनकर फिर नीचे उतर आये और हाथ-पैर मारने लगे ।
मेरी इस बात से आप समझ गये होंगे कि जीव का स्वर्ग में पहुँच जाना या उच्च देवलोकों में देव बन जाना भी कोई महत्त्व नहीं रखता । सिवाय संचित पुण्यों को समाप्त करने के वह आत्मा की भलाई के लिए वह वहाँ पर कुछ भी नहीं कर सकता । इसलिए स्वर्ग की इच्छा करना भी व्यर्थ है ।
अब हमारे सामने तिरछालोक या मध्यलोक आता है । आप अवश्य ही समझते हैं कि मध्यलोक - अधोलोक और उर्ध्वलोक से उत्तम है । किन्तु यह भी समझ लीजिए कि मध्यलोक में जन्म लेने वाले सभी प्राणी इसकी उत्तमता का लाभ नहीं उठा सकते । इस मध्यलोक में असंख्य तिर्यंच प्राणी हैं । वे नारकीयों के समान ही कष्टकर जीवन व्यतीत करते हैं । हिंसक पशु अन्य जीवों को मारकर खाते हैं और निरीह प्राणी मौत के घाट उतरते हैं । घोड़े, बैल, गधे आदि शक्ति से अधिक भार वाहन करके और ऊपर से मार खा-खाकर अधमरे बने रहते हैं । इन सबके अलावा यहाँ वाणव्यंतर देव, यक्ष, राक्षस, भूत एवं पिशाच आदि भी हैं जो अपनी निम्न करणी या अन्य किन्हीं पापों के कारण या तो अन्य प्राणियों को सताते फिरते हैं या उद्देश्यहीन भटकते हैं | अपनी आत्मा की भलाई यानी उसे कर्म - मुक्त करने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते ।
अब बचे मनुष्य | मनुष्यों में भी सभी आत्म-कल्याण का प्रयत्न नहीं कर पाते । असंख्य मनुष्य तो जन्म से ही गूंगे, बहरे, अपंग या रोगी होते हैं, असंख्य ऐसे होते हैं जो अनार्य कुल, क्षेत्र या जाति में उत्पन्न होने के कारण जीवन भर धर्म किस चिड़िया का नाम है यह नहीं जान पाते । अनेक ऐसे भी होते हैं जो कि अच्छे कुल या क्षेत्र में जन्म लेने पर भी सत्संगति के अभाव से धर्म के मर्म को नहीं समझते ।
इस प्रकार बहुत थोड़े व्यक्ति ही ऐसे मिलते हैं जो मनुष्य जीवन को लाभान्वित करने का मार्ग सन्तों के समागम से या शास्त्रीय वचनों से जान लेते हैं, उस पर विश्वास करते हैं और विश्वास करने के पश्चात् आचरण में भी उतारते हैं ।
'छहढाला' में बताया गया है—
यह मानुष पर्याय,
सुकुल, सुनिवो जिनवाणी; इह विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी ।
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