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________________ सोचो लोक स्वरूप को २६३ 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया हैअणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्तम्मि होई पडिसेवि । एएहि कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ ३६-२६७॥ अर्थात्-निरन्तर अपार क्रोध करने वाला और निमित्तादि का शुभाशुभ फल बताने वाला आसुरी-भावना को उत्पन्न करता है। गाथा का भावार्थ यही है कि हर समय क्रोध करना तथा शुभाशुभ फल के उपदेश में प्रवृत्त रहना आसुरी भावना का द्योतक है । जो व्यक्ति इस प्रकार की आसुरी भावना निरन्तर रखता है तथा अन्त तक भी अपने पापों की आलोचना किये बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वह विराधक होता है। ऐसा जीव मृत्यु के पश्चात् नरक में असुर बनता है । असुर देव कहलाते हुए भी ऊँचे स्वर्गों के वैमानिक देवों की अपेक्षा बहुत कम सुख और समृद्धि वाले होते हैं । उनका काम नारकीय जीवों को घोर दुःख पहुँचाना होता है । नारकीय जीवों के लिए 'छहढाला' पुस्तक में कहा है तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावें दुष्ट प्रचण्ड । प्रथम तो नारकीय जीव ही आपस में कुत्तों के समान लड़ते हैं और एकदूसरे के शरीर के तिल के जितने-जितने टुकड़े कर देते हैं । पर उनके शरीर पारे के समान पुनः जुड़ जाते हैं । आगे कहा है-अत्यन्त दुष्ट एवं क्रू र भावना रखने वाले असुर जाति के देव भी पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर नारकीयों को अपने अवधिज्ञान के द्वारा आपसी वैर की याद दिलाकर बुरी तरह लड़ने के लिए भिड़ा देते हैं और स्वयं उन्हें लड़ते हुए देखकर आनन्दित होते हैं । ___तो मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि नारकीय बनना तो महान दुर्भाग्य है ही, साथ ही वहाँ पर भवनवासी असुर या परम-अधर्मी देव बनना भी निकृष्ट है । दूसरे शब्दों में अधोलोक स्वप्न में भी वाञ्छा करने लायक नहीं है। __इसी प्रकार उर्ध्वलोक का भी हाल है। भले ही साधना करके देवगति का बन्ध कर लिया, किन्तु साथ में किल्विष भावना रहने के कारण कपटपूर्वक ज्ञान, ज्ञानी, धर्माचार्य, संघ एवं साधु-साध्वी की निन्दा, आलोचना या अवहेलना की तो वहाँ भी चाण्डाल के समान देव बने और अगर पुण्य ने जोर मारा तथा ऊपरी स्वर्गों में देवयोनि प्राप्त कर ली तो लाभ केवल यही हुआ कि जब तक वहाँ का आयुष्य रहा भोगों को भोगने में पूर्व पुण्यों को तो समाप्त कर लिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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