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________________ कर कर्म - निर्जरा प्राया मोक्ष ठिकाना लेकर निकले थे । किन्तु अपने गाँव के कितनी भिन्न धारणा थी ? एक ने गाँव के था, तथा दूसरे ने उन्हीं लोगों को देवता के २८१ व्यक्तियों के लिए दोनों के मन में लोगों को नीच और गँवार बताया समान उत्तम और सज्जन कहा था । इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि स्वयं के दोषपूर्ण एवं दुर्जन होने के कारण पहले यात्री को गाँव के लोग दुर्जन और दुष्ट दिखाई देते थे तथा दूसरे यात्री को वे ही गाँव के निवासी सज्जन और उत्तम पुरुष लगते थे । लोग तो वही थे पर दोनों व्यक्तियों की दृष्टि में अन्तर था ? पहले यात्री की दोष-दृष्टि थी और दूसरे की गुण-दृष्टि । Jain Education International इसके अलावा जो दुर्जन था, उसने अपने दुर्गुणों से गाँव के लोगों को अपना दुश्मन बना लिया था और सज्जन व्यक्ति ने अपने गुणों से सभी को मोहित करके उन्हें हितैषी बनाया था । पर यह हुआ कैसे ? दोनों व्यक्तियों के शरीर और इन्द्रियों में तो कोई अन्तर था नहीं, सभी कुछ समान था । बात केवल यही थी कि पहले वाले यात्री ने अपनी इन्द्रियों का और मन का दुरुपयोग किया था यानी उनसे लड़ने-झगड़ने तथा ईर्ष्या-द्वेष आदि का काम लिया था; किन्तु दूसरे व्यक्ति ने अपनी उन्हीं इन्द्रियों को और मन को प्रेम, सहानुभूति, सेवा, सहायता आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त किया था । इसीलिए पहले व्यक्ति के लिए गाँव दुःख का धाम बना और दूसरे के लिए सुख का धाम । गाँव और गाँव के लोगों में कोई अन्तर नहीं था, अन्तर था उन दोनों व्यक्तियों के विचारों में और प्रवृत्तियों में । ठीक यही हाल इस मानव लोक का भी है। जो महापुरुष अपने मन को एवं इन्द्रियों को वश में करके उन्हें शुभ प्रवृत्तियों की ओर रखते हैं, वे इसी भूतल पर अपने सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा करते हुए मोक्ष धाम को प्राप्त कर लेते हैं और इसके विपरीत जो दुर्जन व्यक्ति इन्द्रियों को तथा मन को स्वतन्त्र छोड़कर भोगों में लिप्त रहते हैं और आत्मा के दुःख-सुख की फिक्र नहीं करते, वे इसी पृथ्वी को नरक बना लेते हैं तथा परलोक में भी नरक या निर्यंच गति प्राप्त करके सदा कष्ट पाते हैं । यह मानव - लोक इसीलिए महिमामय है कि जीव केवल मानव-शरीर धारण करके ही आत्म-साधना कर सकता है तथा कर्मों की निर्जरा करते हुए अपनी उत्कृष्ट करणी के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति में भी समर्थ बन सकता है । अन्य किसी भी गति में प्राणी ऐसा नहीं कर पाता । यहाँ तक कि जिस स्वर्ग की सभी कामना करते हैं उसमें जाकर और देव बन कर भी वह कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न नहीं कर सकता । वहाँ पर जीव केवल पूर्वोपार्जित पुण्यों के बल पर अपार सुख भोग ही करता पुण्यों के समाप्त होते ही पुनः संसार-चक्र में घूमने लगता है । और उन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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