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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना
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लिए तप नहीं करना चाहिए । तप केवल निर्जरा के लिए यानी कर्मों को नष्ट करने का संकल्प रखकर करना चाहिए।
निर्जरा के लिए किये हुए तप के द्वारा आत्मा कर्मों से मुक्त होकर मोक्षफल की प्राप्ति भी कर सकती है, तो इस लोक और परलोक में कुछ प्राप्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है वह सब तो बिना इच्छा के भी मिल जाता है । जिस प्रकार किसान को खेती करने पर उसका सर्वोत्तम फल धान्य तो प्राप्त होता ही है, साथ ही भूसा आदि उसके साथ यों ही मिल जाता है । इनके लिए इच्छा करने की आवश्यकता नहीं होती।
तप का अभीष्ट फल भी कर्मों से सर्वथा मुक्ति या मोक्ष है, बाकी इस लोक में कीति, प्रशंसा, श्लाघा और धन या परलोक में जैसा कि मैंने अभी बताया, देव, इन्द्र या चक्रवर्ती होना भूसे के समान है, जो स्वयं ही मिलता रहता है । ___ कहने का अभिप्राय यही है कि किसी फल-प्राप्ति की इच्छा से घोर तप करके शरीर को सुखा देना निरर्थक है, उससे कर्मों का क्षय न होकर उलटे बंध होता है । इसी प्रकार परिषहों या उपसर्गों के कष्टों को हाय-हाय करते हुए भोगना भी निरर्थक है; क्योंकि उससे नवीन कर्मों का बंध होता जाता है । संक्षेप में अज्ञानपूर्वक कष्टों को सहन करने से कोई लाभ नहीं है । इस विषय में एक सून्दर श्लोक है--
अज्ञानकष्टम् नरके च ताड़नम्
तिर्युक्षु तक्षुधवध बंध वेदनम् । एते अकामा भवतीति निर्जरा,
इच्छां विना यत् किल शीलपालनम् ? अर्थात्-नरक में जीव ताड़न, फाड़न, छेदन एवं भेदन आदि के कारण घोर कष्ट सहन करता है और तिर्यंच गति में भूख, प्यास, वध, बन्धन एवं पीटे जाने के कष्ट भी भोगता है। परन्तु उन कष्टों को वह समभाव से सहन नहीं करता एवं ज्ञानपूर्वक मेरे कर्मों की निर्जरा होगी यह समझकर नहीं भोगता अतः कष्ट सहने पर भी कर्मों का क्षय नहीं होता।
उदाहरणस्वरूप- एक स्त्री, जिसका पति विदेश चला जाता है या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वह लोक व्यवहार और सामाजिक भय से शील का पालन करती है, किन्तु उसके मन में पति के विद्यमान न होने का दुःख रहता है तथा अगले जन्म में वह उससे मिलने की कामना रखती है। ऐसी स्थिति में भले ही मजबूरी और लोकलज्जा से शील का पालन करने पर उसे उच्चगति
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