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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
बढ़ता है उपशम भाव चित्त में जैसे, तप-वह्नि प्रज्वलित होती जैसे-जैसे । ज्यों धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान चढ़ता है,
त्यों-त्यों विशूद्ध निर्जरा मान बढ़ता है। भगवान ने सकाम और निष्काम, दो प्रकार की निर्जरा बताई है । जो आत्म-साधक अपने कर्मों को नष्ट करना चाहता है, वह तप का आराधन करता है क्योंकि
"तपसा क्षीयते कर्मः।" यानी-तप से कर्म क्षीण होते हैं ।
कविता में भी यही कहा गया है कि ज्यों-ज्यों तप की अग्नि तेज होती जाती है, त्यों-त्यों उपशम भाव बढ़ता है और कर्म क्षीण हो चलते हैं । तपस्वी बारहों प्रकार के तपों में जुट जाता है तथा उसकी आत्मा में धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान की धारा जितनी बढ़ती है, उतनी ही तीव्रता से कर्मों की निर्जरा होने लगती है।
पर मुझे आपको अभी यह बताना है कैसे तप से कर्मों की निर्जरा होती है ? तप भी सकाम और निष्काम होता है तथा कामनारहित तप निर्जरा का हेतु बनता है।
(१) अकाम निर्जरा-जो तपस्वी किसी फल की कामना से तप करता है, उसको भले ही स्वर्ग-सुख हासिल हो सकता है, किन्तु कर्मों की निर्जरा वह नहीं कर पाता । अनेक व्यक्ति तपस्या करते हैं, किन्तु साथ ही किसी न किसी फल की इच्छा रखते हैं कि मेरी तपस्या का अमुक फल मिलना चाहिए । ऐसे निदान का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति यश, कीर्ति प्राप्त कर लेता है, सेठ, राजा, देवता या इन्द्र भी बन सकता है किन्तु कर्मों का क्षय नहीं कर पाता अतः अपनी आत्मा को संसार-मुक्त नहीं कर सकता। उसका तप बाल-तप या अज्ञानतष कहलाता है।
इसलिए आचार्य शय्यंभव ने तपाराधन करने वाले को उद्बोधन दिया है- "नो इहलोगठ्ठयाए तवमहिद्विज्जा, नो परलोगठ्याए तवमहिछिज्जा, नो कित्तिवण्ण सइसिलोगठ्ठयाए तवमहिछिज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तव मिहिद्विज्जा।" ___ अर्थात्-इस लोक की कामना को लेकर यथा-धन, प्रसिद्धि या सम्मान आदि के लिए, परलोक की कामना से देव, इन्द्र, अहमिन्द्र या चक्रवर्ती बनने के
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