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________________ संवर आत्म स्वरूप है धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! ___ कल हमने 'आस्रव भावना' पर विचार किया था और आज ‘संवर भावना' पर विवेचन करेंगे । 'संवर भावना' संवर के सत्तावन भेदों में से अड़तीसवाँ भेद और बारह भावनाओं में से आठवीं भावना है । संवर भावना का स्वरूप है-इन्द्रियों पर और मन पर संयम रखते हुए कर्मों के आगमन को रोके रहना । पाँचों इन्द्रियों के अपने-अपने विषय हैंशब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श । इन्हीं की ओर इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है किन्तु इन विषयों की ओर जाने से इन्द्रियों को रोकना तथा उनमें आसक्त न होने देना ही संवर का स्वरूप है । । उदाहरणस्वरूप-आपके घरों में नल होता है। उसे जरा-सा एक ओर घुमाते ही पानी बहने लगता है और थोड़ा सा दूसरी ओर करते ही पानी निकलना बन्द हो जाता है। यही पाँचों इन्द्रियों के विषय में कहा जा सकता है कि उन पर थोड़ा सा नियन्त्रण हटाते ही पाप-कर्मों का आगमन या आस्रव होता है और थोड़ा सा काबू रखते ही वे रुक जाते हैं। मन को तनिक मोड़ दो ! जो महापुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हैं, उनकी आत्म-शक्ति साधना को सफल बनाती है, पर जो ऐसा नहीं कर पाते वे अपनी शक्ति का अपव्यय या दुरुपयोग करके कुगतिगामी बनते हैं । यथा जो संयमी पुरुष अपनी भाषा पर काबू रखते हैं, उनके वचनों में संसार के अज्ञानी प्राणियों को भी सन्मार्ग पर लाने की ताकत होती है, किन्तु जो सदा बकवाद करते रहते हैं, वे अपनी शक्ति का अपव्यय तो करते ही हैं, साथ ही उनका प्रलाप कोई पसन्द भी नहीं करता । धन को आप तिजोरी में रखकर ताला लगा देते हैं तो वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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