SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर आस्रव को निर्मूल २४६ न जाने कब तक पापों का भुगतान करेगा। इसी प्रकार मैं भी अभी तो पाँचों इन्द्रियों के वश में सांसारिक भोग, भोग रहा हूँ पर आखिर इनके कारण जो आस्रव हो रहा है अर्थात् कर्म मेरी आत्मा पर चिपटते चले जा रहे हैं, वे किसी दिन अपना कर्ज वसूल करने उदय में तो आयेंगे ही अतः दृढ़ साधना करके संवर की आराधना करूं तथा बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करूं तभी इस शरीर का लाभ मिल सकेगा।" शास्त्र में कहा गया है___तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ। -सूत्रकतांग १-१५-६ अर्थात्-जो नए कर्मों का बन्धन नहीं करता है उसके पूर्वबद्ध पाप भी नष्ट हो जाते हैं। 'एक पंथ दो काज,' इसी को कहते हैं। यानी जो साधक आस्रव के स्वरूप को समझकर पापों के आगमन को रोक देता है उसके पूर्व कर्म भी स्वयं क्षय हो चलते हैं । इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है अतः प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को आस्रव भावना भाते हुए संवर को अपनाना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy