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________________ कर आस्रव को निर्मूल २३६ कहलाता है और ये उस स्थिति में निरन्तर आते चले आते हैं, जबकि प्राणी इन्द्रियों के वशीभूत रहता है । इन्द्रियाँ अपने विषयों से आकर्षित होकर उन्हें भोगने का प्रयत्न करती हैं और उसके फलस्वरूप जीवात्मा को कष्ट उठाने पड़ते हैं। पद्य में कहा है कि एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर भी प्राणी अपने प्राण गँवा बैठते हैं तो फिर पाँचों इन्द्रियों के वश में रहने वाले मानवों का क्या हाल होगा ? यथा ___ कान के कब्जे में रहने से हरिण अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है । सुनने में आता है कि हरिणों को पकड़ने वाले शिकारी जंगल में जाकर वीणा आदि वाद्य बजाते हैं और उनके मधुर नाद से हरिण आकर्षित होकर सहज ही खिचे चले आते हैं । जहरीले सर्प भी सपेरे के पूंगी बजाने पर वहाँ आ जाते हैं तथा पिटारी में बन्द होकर फिर अपने विष-दन्त ही उखड़वा बैठते हैं। दूसरी चक्षु-इन्द्रिय होती है । पतंग को दीपक की लौ बड़ी प्रिय और सुहावनी लगती है अतः उसी पर अनवरत मँडराते रहकर अन्त में उसी से जल मरता है। __ घ्राणेन्द्रिय तीसरी इन्द्रिय है। इसका विषय है सुगन्ध । भँवरे की घ्राणेन्द्रिय बड़ी तेज होती है और इसलिए वह कमल के फूल पर जा बैठता है । किन्तु सुगन्ध से मस्त होकर वह भूल जाता है कि शाम हो रही है और सूर्यास्त के साथ ही कमल के पुट संकुचित होकर बन्द हो जाएंगे। ऐसा हो भी जाता है, यानी सूर्य के अस्त होते ही कमल संकुचित हो जाता है और भ्रमर उसमें रह जाता है । तब वह विचार करता है रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्, भास्वान् उदेष्यति हसिस्यति पंकजश्रीः । एवं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे, __ हा हन्त ! हन्त ! नलिनी गज उज्जहार ॥ अर्थात्-घ्राणेन्द्रिय के वश में होकर कमल-पुष्प में बन्द हो जाने वाला भ्रमर विचार करता है-“रात्रि चली जाएगी और प्रभात होगा । उस समय भगवान भास्कर के उदित होने पर ज्योंही कमल खिलेगा, मैं आनन्द से उड़ जाऊँगा।" किन्तु अफसोस कि सूर्योदय से पहले ही हाथी आता है और तालाब में स्थित उस कमल को नाल सहित अपनी सूंड से उखाड़ लेता है । इस प्रकार न कमल खिल पाता है और न ही उसमें कैद भ्रमर बचता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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