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________________ १८ कर पास्त्रव को निर्मूल धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों में से छत्तीस भेदों पर हम विवेचन कर चुके हैं आज इसके सैंतीसवें भेद पर संक्षिप्त विचार करना है । वह भेद है 'आस्रवभावना'। बारह भावनाओं में से यह सातवीं भावना है और मानव के लिए इसका पाना आवश्यक है क्योंकि आस्रव का अर्थ है-पाप-कर्मों का आना और इन अशुभ कर्मों के निरन्तर आते रहने से जीव संसार-परिभ्रमण करता हुआ घोर दुःख पाता रहता है । अतः जो व्यक्ति इस भावना को ध्यान में रखते हुए आस्रव से बचेगा, वही आत्मा को कर्मों से मुक्त करने में समर्थ बन सकेगा। _ पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषि जी महाराज ने आस्रव-भावना के स्वरूप को बताते हुए लिखा है-- आस्रव है महा दुखदायी भाई जगमाही, श्रोतेन्द्रिय वश मृग मरत अकाल है। नेत्र से पतंग भृग घ्राण, जीभ मीन जाण, ___ मतंग फरस मन महिम बेताल है। एक-एक इन्द्रि वश मरत अनेक जीव, पंचेन्द्रिय वश ताको कहो कौन हाल है ? ऐसे अभिप्राय से ही दीक्षा ली समुद्रपाल, कहत त्रिलोक भावे होय सो निहाल है । पद्य में कहा गया है कि इस संसार में जीव को भटकाने वाला और नाना कष्टों को प्रदान करने वाला आस्रव ही है । कर्मों का आगमन आस्रव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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