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हंस का जीवित कारागार
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समर्थ हैं; किन्तु मान यानी अहंकार या गर्व सभी से बढ़कर है। अहंकार के वश में रहकर मानव सारे संसार को तुच्छ समझने लगता है और अनेक पापों का बन्धन करके दुर्गति में जाता है । कहा भी है
'अन्नं जणं पस्सति बिबभूयं ।' अर्थात्-अभिमानी व्यक्ति अपने अहंकार में चूर होकर दूसरों को बिम्बभूत यानी परछाई के समान तुच्छ मानता है ।
किन्तु अहंकार का परिणाम कभी भी उसके लिए अच्छा नहीं होता और वह वर्तमान जीवन तो बिगड़ता ही है परलोक को इससे भी अनेकगुना दुखद बना देता है । रावण, कंस, दुर्योधन आदि अपनी शक्ति के गर्व में चूर हो गये थे, पर उसका फल क्या हुआ ? अपने जीवन में तो कुल को भी ले डूबे, सदा के लिए कुख्यात हुए, और पापों के कारण कुगतियों में घोर दुःख पाने के लिए गये वह अलग।
यहाँ मैं आपको यह और बताना चाहता हूँ कि अहंकार केवल शक्ति का ही नहीं होता, और भी कई तरह का होता है। योगशास्त्र में कहा गया है
जाति-लाभ-कुलेश्वर्य-बल-रूप-तपः श्रुतैः।
कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः ॥ -- अ. ४-१३ अर्थात्-जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप एवं ज्ञान, इस प्रकार आठ प्रकार के मद यानी अहंकार में चूर होता हुआ जीव भवान्तर में हीनगति को प्राप्त करता है। __ मुनि हरिकेशी चांडाल कुल में उत्पन्न हुए थे और उनके शरीर में रूप का भी अभाव था। किन्तु उनके हृदय में संसार को देखकर अनित्य, अशरण, एकत्व एवं अनित्यादि भावनाओं का उद्भव हुआ जिनके परिणामस्वरूप उन्होंने मुनि-धन ग्रहण कर लिया। पूर्ण दृढ़तापूर्वक वे मुनि-धर्म का पालन करने लगे एवं साधु-चर्या के अनुसार यत्र-तत्र विचरण करते रहे। मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों पर उनका पूर्ण कब्जा था।
एक बार वे भ्रमण करते हुए कहीं ठहरे और भिक्षा की गवेषणा करते हुए ब्राह्मणों के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ-मंडप में पहुंच गये।। ___ उन्हें देखकर जाति एवं कुल के घमण्ड से चूर ब्राह्मण उनका उपहास करने लगे।
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